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________________ ३६८ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) पर 'कदनम्' शब्द होगा । उणादि के 'पिचण्डैरण्ड'-( उणा-१७६) से 'अण्ड' प्रत्यय होकर निपातन होने पर 'धनुष्' अर्थ में 'कोदण्ड' शब्द बनता है । 'कदेः' -( उणा-३२२) से णित् 'अम्ब' प्रत्यय होने पर 'कादम्ब' शब्द कलहंस अर्थ में होता है। जबकि 'कदम्ब' शब्दवृक्ष की जाति अर्थ में है। 'द्वारशृङ्गार'- ( उणा-४११) से 'आर' प्रत्यय होने पर निपातन से 'केदार:' शब्द बनता है। 'मुदिकन्दि'(उणा-४६५) से 'अल' प्रत्यय होकर 'गौरादिभ्यो' - २/४/२० से ङी प्रत्यय होने पर 'कदली' शब्द होगा । ४२॥ ध अन्तवाला ' मिधृग् मेधाहिंसासंगमेषु' धातु मेधा, हिरवार संगम' अर्थ में है । 'क्य' प्रत्यय होने पर कर्मणि में 'मिध्यते' । जबकि 'मेधते' इत्यादि प्रयोग 'मेधृग् सङ्गमे च' धातु के होते हैं । 'वौ व्यञ्जनादेः' - ४/३/२५ से 'क्त्वा' प्रत्यय विकल्प से कित् होने पर 'मिधित्वा, मेधित्वा' रूप होते हैं । भिदादयः' ५/३/१०८ से 'अङ' प्रत्यय होने पर निपातन से 'मेध' शब्द बनता है ॥४३॥ स्वो. न्या. -: 'मेधा' शब्द यद्यपि 'मेधृग्' धातु से भी सिद्ध हो सकता है, किन्तु आचार्यश्री हेमचंद्रसूरिजीने 'मिधूग्' धातु से सिद्ध किया है, अतः हमने (श्रीहेमहंसगणि ने) भी वैसा किया है। न्या. सि-: यद्यपि उपर बताये हुए ‘मृदिकन्दि'-( उणा-४६५) सूत्र में 'कद' धातु का पाठ नहीं है और वृत्ति में भी 'कदली' उदाहरण नहीं दिया है, तथापि "संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे । कार्याद् विद्यादनुबन्धमेतच्छास्त्रमणादिषु ॥" इसी प्राचीन उक्ति के आधार पर यहाँ 'कद्' धातु से भी 'अल' प्रत्यय होता है, अतः आचार्यश्री ने स्वयं 'स्वोपज्ञाभिधानचिन्तामणि वृत्ति' में कहा है कि 'कद्' धातु सौत्र है और 'कद्यते इति कदली ' शब्द में 'मृदिकन्दि'- ( उणा-४६५) सूत्र से 'अल' प्रत्यय होता है। न अन्तवाला 'धनक धान्ये' धातु 'धान्य से उपलक्षित क्रिया' अर्थ में है जैसे 'णील वर्णे' धातु का 'वर्ण से उपलक्षित क्रिया' ऐसा अर्थ धातुपारायण में बताया है। अन्यथा 'धन' और 'नील' में क्रियार्थत्व का अभाव होने से धातुत्व की संभावना नहीं है । यही धातु ह्वादि (जुहोत्यादि) होने से 'शित्' प्रत्यय पर में आने पर 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने से ' दधन्ति' । उणादि के 'भृमृ'-( उणा-७१६) से 'उ' प्रत्यय होने पर 'धनुः' शब्द 'अस्त्र' अर्थ में होता है । 'कृषिचमि'(उणा-८२९) से 'ऊ' प्रत्यय होने पर 'धनूः' शब्द 'धान्यराशि' अर्थ में होता है । ॥४४॥ प अन्तवाले चार धातु हैं । १ 'रिप कुत्सायाम्' निन्द्य अर्थ में है। 'रेपति' । उणादि के 'अस्' (उणा-९५२) से 'अस्' प्रत्यय होने पर 'रेप:' शब्द पाप अर्थ में होता है । ॥४५॥ २. 'कप कम्पने, कपति', उणादि के 'ऋकृ-' (उणा-४७५) से 'आल' प्रत्यय होने पर 'कपालम्' । 'कटिपटि-' ( उणा-४९३) से 'ओल' प्रत्यय होने पर कपोलः' शब्द बनता है।॥४६॥ ३. 'क्षुप हासे । क्षोपति ।' 'नाम्युपान्त्य' - ५/१/५४ से 'क' प्रत्यय होकर 'क्षुपो १. धातुपाठ में 'संगम' अर्थ दिया नहीं है। धातुपाठ में ९०१, ९०२ दोनों धातु थ अन्तवाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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