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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) स्वो. न्या. 'वडति गृह्णाति छदींषि इति वडभी' (घास फूस की छोटी सी झोंपडी को जो ग्रहण करे वह) और 'वडति गृह्णाति गर्भं इति वडवा ।' (गर्भ को जो ग्रहण करे वह वडवा) । 'प्रणालयति भ्रश्यति अम्भः अनेन इति प्रणालः ।' जिसके द्वारा पानी (एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाय) स्थानभ्रष्ट हो वह प्रणाल ।
न्या. सि. : 'क्रोड' शब्द पुल्लिंग में हो तो सुअर अर्थ । 'क्रोडा'- स्त्रीलिंग में हो तो गोद अर्थ और क्रोडम्, नपुंसकलिंग हो तो सीना/वक्षःस्थल अर्थ होता है। गौड शब्दकोश में कहा है 'स्त्री नपुंसकयो: क्रोडावक्षसि यत् किरौ पुमान् ।' 'उड्डपः' अर्थात् छोटी नौका । वलभी' अर्थात् छत में ड़ेर या गाटर के साथ जुडी हुई लकड़ियाँ जिस पर छप्पर बनाया जाता है।
'वडिश् बडिश्' अर्थात् मछलियों को पकड़ने की कँटिया या विष/गरल । 'नाडी' शब्द का दूसरा अर्थलम्बी पोली नली होता है।
___ 'नडण अवस्यन्दने' धातु के स्थान पर 'णडण' होना चाहिए, ऐसा नंदी नामक वैयाकरण कहते हैं, ऐसा 'धातुपारायण' में बताया है । वह यद्यपि दूसरे द्वारा पठित धातुपाठ के अनुसार है, ऐसा कहा है तथापि उणादि वृत्ति में ‘णडि' धातु को सौत्र धातु के रूप में बताया है। अतः यहाँ उसे सौत्र धातु के रूप में बताया है । 'अवस्यन्दन' का अर्थ 'धातुपारायण' में 'भ्रंश' किया है। ॥३१॥
ण अन्तवाले दो धातु हैं १. 'घण हिंसायाम्' हिंसा करना, 'द्रुन् दारूणि धणति' । 'लिहादिभ्यः' ५/१/५० से 'अच्' होने पर 'द्रुघणो घनः' शब्द होता है । ॥३२॥
२. 'किणत् शब्दगत्योः' शब्द और गति अर्थ में है । 'किणति' । 'नाम्नि पुंसि च ' ५/३/ १२१ से ‘णक' प्रत्यय होने पर 'केणिका पटकुटी ।उणादि के 'निघृषी'-( उणा-५११ ) से कित् 'व' प्रत्यय होने पर 'किण्वं' शब्द पाप अर्थ में बनता है ॥३३॥ .
त अन्तवाले चार धातु हैं । १. 'कुत गुम्फप्रीत्योः' गूंथना और खुश करना अर्थ में है । 'कोतति' । उणादि के 'भुजि कुति-' (उणा-३०५) से कित् 'अप' प्रत्यय होने पर 'कुतपः' शब्द कम्बल या श्राद्धकाल अर्थ में होता है । ॥३४॥
२. 'पुत गतौ' गति अर्थ में है। 'पोतति' । उणादि के 'कृतिपुति'- ( उणा -७६) से कित् "तिक' प्रत्यय होने पर 'पुत्तिका' शब्द मधुमक्खी अर्थ में होता है। ॥३५॥
स्वो. न्या. 'किणन्ति गच्छन्ति जना अत्र इति केणिका' । जहाँ लोग जाते हैं। वह केणिका - तंबु कहा जाता है । 'कुत्यते-गुम्फ्यते छागरोमभिः इति कुतपः कम्बलः' । भेड बकरा आदि के बाल/ रोम से जो बनाया जाय वह कम्बल । 'कोतन्ति प्रीयन्ते पितरोऽस्मिन्निति कुतपः श्राद्धकालः' । जिस काल में पितृओं/पूर्वजों को खुश/संतुष्ट किये जाते हैं वह कुतपः श्राद्धकाल कहा जाता है। 'पोतति उद्यच्छन्ति मधुने इति पुत्तिका' । मधु के लिए जो उड़ती है वह पुत्तिका अर्थात् मधुमक्खी।।
१. केणिका अर्थात् छोय तंबु (कपडे का) २. कुतप शब्द का अर्थ भानजा भी होता है । (अभिधानचिन्तामणि श्लोक ५४३) ३. यहाँ 'उद्यच्छन्ति' प्रयोग के स्थान पर 'उद्गच्छन्ति' प्रयोग होना चाहिए क्योंकि पुत धातु गति अर्थ में है।
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