SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३६५ 'कुरण्टको वृक्षजातिः' (एक प्रकार का वृक्ष) शब्द होता है ॥२४॥ २. घटु शब्दे' शब्द करना धातु उदित् होने से ‘उदितः स्वरान्नोऽन्तः' ४/४/९८ से 'न' का आगम होने पर 'घण्टति' होता है ॥२५॥ स्वो.न्या-'पञ्ज्यते रुध्यते विच्छिद्यमानोऽर्थोऽनया इति पञ्जिका' ऐसा विग्रहवाक्य होगा । 'को पृथिव्यां (रण्टति) हरति विरहिणां प्राणान् इति कुरण्टकः' । विरहीजन के प्राणहरण कर ले वह कुरण्टक । न्या. सि. 'मञ्जरी' अर्थात् आम्रवृक्षका मुकुर, 'मञ्जीर' अर्थात् नुपूर और 'मञ्जुल अर्थात् मनोज्ञ/सुन्दर । 'पञ्जर' अर्थात् तोता इत्यादि पक्षियों का पिंजरा । कञ्जार' अर्थात् कुसूल (कोठार, धान्य रखने की ऊँची कोठी) और 'यूप' अर्थात् यज्ञ का स्तंभ और व्यञ्जन अर्थ होता है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं। 'घटु' धातु से 'अच्' प्रत्यय होने पर घण्ट' शब्द होता है, उससे स्त्रीलिंग में 'आप' प्रत्यय होने पर घण्टा' शब्द बनता है। ३. 'मट हासे' अर्थात् क्षीण होना, 'मटति'। उणादि के कृप-(उणा-५८९) से 'अह ' प्रत्यय होने पर 'मटहः' लघुबाहु या लघुबाहुक ॥२६॥ ठ अन्तवाला 'कुठ छेदने' धातु छेदना अर्थ में है। 'कोठति' । 'नाम्युपान्त्य'-५/१/५४ से 'क' प्रत्यय होने पर 'कुठः' वृक्षः शब्द बनता है । उणादि के 'तुषिकुठि' - ( उणा-४०८) सूत्र से कित् 'आर' प्रत्यय होने पर 'कुठारः' अर्थात् परशु शब्द होता है । ॥२७॥ ड अन्तवाले चार धातु हैं । १. 'क्रुड शब्दे', आवाज़ करना । 'क्रोडति', 'लिहादिभ्यः' ५/ १/५० से 'अच्' प्रत्यय होने पर 'क्रोडः' शब्द बनता है ॥ २८॥ २. 'उड सङ्घाते' समूह, एकत्र करना अर्थ में है । 'ओडति' । उणादि के 'उडे:'-( उणादि३११) से कित् 'उप' प्रत्यय होने पर 'उडुपः' (चंद्र) शब्द होगा ॥ २९॥ ३. 'वड आग्रहणे', ग्रहण करना अर्थ में है । 'वडति' । उणादि के 'कृशप-( उणा-३२९) से 'अभ' प्रत्यय होकर गौरादित्व के कारण 'ङी' प्रत्यय होने पर 'वडभी' शब्द बनता है । और 'ऋफिडादीनां डश्च लः' २/३/१०४ से 'ड' का 'ल' होने पर वलभी' शब्द होता है । 'वडिवटि'(उणा- ५१५) से 'अव' प्रत्यय होने पर 'वडवा' शब्द होता है ॥३०॥ ४. 'णडण् भ्रंशे,' भ्रंश अर्थ में है। यही धातु णोपदेश है । यहाँ णडि, णटि, णुदि, णाधि,' यही चार धातु नकारादि होने पर भी णोपदेश है। उसमें 'पाठे धात्वादेः'-२/३/९७ से 'ण' का 'न' होता है, बाद में उसी 'न' का 'अदुरुपसर्गान्तरो ण हिनुमीनानेः' २/३/७७ से ण होगा, वह णोपदेश का फल है । उदा. 'नाडयति, प्रणाडयति' । 'घ' प्रत्यय होकर 'ड' का 'ल' होने पर 'प्रणाल' शब्द होता है । णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में 'अच् प्रत्यय होने पर 'नड' शब्द घास की जातिविशेष अर्थ में होता है । उणादि के 'नडे:'-( उणा-७१२) से णित् 'ई' प्रत्यय होने पर 'नाडी' शब्द-अर्धमुहूर्त अर्थात् एक घड़ी/२४ मिनिट अर्थ में होता है । उससे स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होने पर 'नाडिका' शब्द होता है। १. स्वो. न्यास में 'रटति' छपा है, जबकि मूलन्यायबृहद्वृत्ति में 'रण्टति' है और वही प्रयोग सही है। २. प्रणाल शब्द से गुजराती में 'परनाल' शब्द आया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy