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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) जबकि अन्य कुछेक के मतानुसार 'कम्' धातु सर्वक्रियार्थक है, अतः 'कगति' का अर्थवह जाता है, वह खाता है, वह सोता है' इत्यादि होता है । यह धातु 'एदित्' होने से 'न विजागशसक्षण म्येदितः' ४/३/४९ से वृद्धि का निषेध होता है, अतः 'व्यञ्जनादेोपान्त्यस्यातः' ४/३/४७ से प्राप्त वृद्धि नहीं होगी और अद्यतनी में 'अकगीत्' रूप होगा ॥ १८ ॥
घ अन्तवाला 'अर्घ मूल्ये' धातु है, वह 'मूल्य करना' अर्थ में है । 'महार्घः' अर्थात् महामूल्यवान् । 'कलां नार्घन्ति षोडशीम्'२ (वे सोलहवीं कला का मूल्य नहीं करते हैं। ) ॥१९॥
च अन्तवाला 'मर्चण् शब्दे' धातु शब्द/आवाज़ करना अर्थ में है। मर्चयति । णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में उणादि के 'भीण शलि'-( उणा-२१) सूत्र से 'क' प्रत्यय होने पर 'चजः कगम्' २/१/८६ से 'च' का क होने से मर्कः शब्द होगा, उसका अर्थ देवदारु २ होता है
॥२०॥
ज अन्तवाले तीन धातु हैं । १. 'मञ् सौन्दर्ये च' । 'च' शब्द से आवाज़ करना अर्थ ज्ञातव्य है। अतः 'मञ्' धातु का अर्थ सौन्दर्य (सुन्दर होना) और आवाज़ करना होता है । 'मञ्जति' । उणादि के 'षष्ठेधिठादय:-' (उणा-१६६ ) सूत्र से 'ठ' प्रत्यय होने पर, निपातन से 'मञ्जिष्ठा' शब्द बनेगा। 'ऋच्छिचटि'-( उणा-३९७ )से 'अर' प्रत्यय होकर उसे स्त्रीलिंग का 'ङी' प्रत्यय होने पर मञ्जरी' शब्द बनेगा और कृशप-( उणा - ४१८) सूत्र से 'ईर' प्रत्यय होने पर 'मञ्जीर' शब्द होगा। 'कुमुल'( उणा-४८७ ) से 'उल' प्रत्यय होने पर मञ्जुल' शब्द होगा । खलिफलि-' (उणा-५६०) से 'ऊष' प्रत्यय होने पर 'मञ्जुषा' शब्द होगा तथा 'भृमृ'- (उणा-७१६) से बहुवचन के कारण 'उ' प्रत्यय होने पर मञ्जु शब्द होगा ॥२१॥
२. 'पञ् रोधे' धातु, रोध करना/रोकना अर्थ में है। 'नाम्नि पुंसि च' ५/३/१२१ से 'णक' प्रत्यय होने पर 'पञ्जिका' शब्द होगा । उणादि के 'ऋच्छिचटि' - (३९७ ) से 'अर' प्रत्यय होकर 'पञ्जर' शब्द होगा । ॥२२॥
३. 'कञ्ज शब्दे' धातु, आवाज़ करना अर्थ में है। कञ्जति' । उणादि के 'अग्यङ्गि - ' ( उणा. ४०५) सूत्र से 'आर' प्रत्यय होने पर 'कञ्जार' शब्द कोष्टजाति अर्थ में होता है ॥२३॥
__ट अन्तवाले तीन धातु हैं । १. 'रण्ट प्राणहरणे' धातु 'मार देना' अर्थ में है । 'रण्टति' । उणादि में 'कु' पूर्वक के 'रण्ट' धातु से 'को रुरण्टि'- ( उणा-२८) से 'अक' प्रत्यय होने पर न्या.सिः- १. यही मत पाणिनीय परम्परा का है और उसका निर्देश 'सिद्धान्त कौमुदी' में श्री भट्टोजी दीक्षित
ने किया है। २. यही श्लोक पुष्पदंत के महिम्नस्तोत्र में इस प्रकार है ।
"दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्घन्ति षोडशीम् ॥" । ३. 'मर्क' शब्द के अन्य अर्थ - वायु, दानव, मन, पन्नग (साँप) और विघ्न करनेवाला होते हैं । ४. भृमृ' (उणा-७१६) सूत्र में 'मञ्' धातु नहीं है तथापि सूत्र में बहुवचन होने से अन्य धातुओ का संग्रह सूचित होता है।
यहाँ भी इसी सूत्र से 'उ' प्रत्यय होगा।
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