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चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१)
३५९ ग्रंथ की आदि में, मध्य में और अन्त में मंगल करना, वह शिष्टपुरुषों का आचार है । महाभाष्य में भी कहा है कि 'मङ्गलादीनि, मङ्गलमध्यानि, मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते ।।
स्वो. न्या.-: 'अभि' पूर्वक 'प्सांक्' धातु से 'अभिप्सायते' अर्थ में 'उपसर्गादातः' ५/३/११० से 'अङ्' होने पर 'इडेत्पुसि चातो लुक्-' ४/३/९४ से 'आ' का लोप होगा, बाद में 'पृषोदरादित्व' के कारण 'अभि' के 'अ' का लोप, 'प्सा' धातु के 'प्' का 'स्' होगा और स्त्रीलिङ्ग में 'आप' प्रत्यय से पूर्व 'ट' का आगम होगा । इस प्रकार 'भिस्सटा' शब्द बनता है।
'कच्छाटिका' और 'ग्रामटिका' शब्दों में 'कच्छा' और 'ग्राम शब्दों से 'कुत्सित' और 'अल्प' इत्यादि अर्थ में 'कप्' प्रत्यय होकर, स्त्रीलिंग का 'आप' प्रत्यय होगा तब 'कप्' प्रत्यय से पूर्व 'ट' का
आगम होगा, बाद में 'अस्यायत्-तत्-क्षिपकादीनाम्' २/४/१११ से 'ट' के 'अ' का 'इ' होने पर 'कच्छाटिका 'और 'ग्रामटिका'३ शब्द होंगे ।
न्या. सिन्धु -: लिंगानुशासन में आचार्यश्री ने 'भिस्सटा' का अर्थ 'कुत्सिता भिस्सा' किया है। अमरकोश (पं. १८०४) भी 'भिस्सटा दग्धिका' कहा है, जबकि टीकाकर ने 'भिस्सां टीकते' कहकर 'भिस्सा' पूर्वक 'टीक्' धातु से शब्दसिद्धि की है।
'अभिधानचिन्तामणि' कोश में 'कच्छा' के लिए कहा है कि "नौकाले परिधाने च पश्चादञ्चलपल्लवे ।" कच्छा तु चीरिकायां तु वाराह्यां च निगद्यते ॥'
ऊपर बताया उसी प्रकार से हैमकोश के अनुसार 'कच्छा' का अर्थ पहनने योग्य वस्त्र का अन्तिम भागचल अर्थात पालव करने पर, उससे कत्सित अर्थ में 'क' प्रत्यय होगा और 'कच्छाटिका' शब्द सिद्ध होगा लिंगानुशासन की टीका में भी आचार्यश्री ने कहा है कि 'अञ्चलपल्लवे चार्थप्राधान्यात् कच्छाटिका इत्यपि यद् गौडः कच्छा-कच्छाटिका समे' अर्थात् 'गौड' शब्दकोश में कच्छा और कच्छाटिका शब्दों को समानार्थी माने गये हैं।
२. कान्दविक, काम्बविक और वैणविक इत्यादि में 'ऋवर्णोवर्ण-दोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक्' ७/४/७१ से प्राप्त 'इकण' के 'इ' का लोप नहीं होता है।
निष्पत्ति की सिद्धि इस प्रकार है। : 'अं अः अनुस्वारविसर्गौ' १/१/९ और 'आपो ङितां यै यास् यास् याम्' १/४/१७ सूत्र स्थित 'अं अः' तथा 'यै यास् यास् याम् ' पदों में अनुक्रम से 'औ' और 'जस्' प्रत्यय का लोप सौत्रत्व से सिद्ध होता है।
लक्ष्यानुरोध से निष्पत्ति की सिद्धि प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि उसका संभव ही नहीं है।
इस प्रकार आगे भी सौत्रत्व और लक्ष्यानुरोध, उन दोनों में से किसी एक से ही सिद्धि बतायी गई हो, वहाँ दूसरे के लिए असंभव स्वरूप कारण जान लेना ।
स्वो.न्या. :- 'कन्दुः पण्यमस्य' अर्थ में 'कन्दु' शब्द से 'तदस्य पण्यम्' ६/४/५४ से इकण् प्रत्यय होने पर 'अस्वयंभुवोऽव्' ७/४/७० से 'उ' का अव्' आदेश होने पर 'कान्दविक' शब्द होता है। वैसे 'कम्बु' शब्द' से 'कम्बुघटनं शिल्पमस्य' अर्थ में और 'वेणु' शब्द से 'वेणुवादनं शिल्पमस्य' अर्थ में 'शिल्पम्' ६/४/५७ से 'इकण' होकर 'अव्' आदेश होने पर 'काम्बविकः' और 'वैणविकः' शब्द होते हैं। १. आचारांग चूर्णि
३. 'ग्रामटिका' शब्द से गुजराती भाषा में 'गामडिया' शब्द आया है, शायद ।
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