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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) . न्या. सिः 'कान्दविक 'शब्द की सिद्धि अन्य वैयाकरण इस प्रकार करते है -: 'कन्दु' अर्थात् 'मद्यनिर्माणोपयोगिपात्र' (अमरकोश पं. १७६७) जो 'कराही' से प्रसिद्ध है 'तत्र संस्कृतं भक्ष्यं' अर्थ में 'कान्दवं' शब्द होगा । उससे 'पण्य' अर्थ में 'इकण' प्रत्यय होने पर 'कान्दविक' होगा । अमरकोश में भी 'आपूपिकः कान्दविको भक्ष्यकार इमे त्रिषु' शब्द (पं.१७६२) दिया है।
'कम्बु' और 'वेणु' शब्द से विकार अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होकर 'काम्बवं' और 'वैणवं' सिद्ध करके, बाद में शिल्प अर्थ में 'इकण' होने पर 'काम्बविक' और 'वैणविक' शब्द सिद्ध हो सकते हैं।
इसके बारे में टिप्पणि करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि अपने मतानुसार 'इकण' के 'इ' लोप का अभाव करने के लिए लक्ष्यानरोधत्व का आश्रय किया है। जबकि श्रीहेमहंसगणि के मतानुसार दो प्रत्ययों के विधानस्वरूप प्रक्रियागौरव दूर करने के लिए और 'इ' लोप का अभाव करने के लिए लक्ष्यानुरोधत्व का आश्रय किया है।
न्या. तरंग -: इस न्याय का महत्त्व बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय केवल 'न्यायसङ्ग्रह' के शेष अंश का ही पूरक नहीं है किन्तु संपूर्ण शब्दशास्त्र के शेष अंश का पूरक है।
शब्दशास्त्र के विषय में महाभाष्यकार इत्यादि ने भी कहा है कि 'प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यानम्' (भाषा में प्रयुक्त शब्दों की ही यहाँ व्याख्या की गई है।)
न्या.त. :- सूत्रकार आचार्यश्री का 'कलिकालसर्वज्ञ' विशेषण होने से, प्रायः प्रयुक्त सभी प्रकार के प्रयोग की सिद्धि हो गई है, तथापि अपनी दृष्टि से वस्तुतः स्वयं छद्मस्थ होने से, भविष्य में, किसी विषय में अपने द्वारा अप्रयुक्त शब्दों के प्रयोग देखनेवाले, अपने शिष्य इत्यादि को उसी प्रयोग के साधुत्व के बारे में आशंका हो तो, उसी आशंका दूर करने के लिए इस न्याय का आश्रय किया गया है।
प्रयोगों की सिद्धि इस प्रकार है : 'रण' इत्यादि धातु केवल सामान्य शब्दवाचक (आवाज़वाचक) है तथापि 'नूपुर' इत्यादि के शब्द को 'रणितं', 'रतकूजित' शब्द को 'मणितं', दुःख में किये जाते आर्तनाद को, 'कणितं', वीणा इत्यादि के शब्द को 'क्वणितं,' पक्षी इत्यादि के शब्द को 'कूजितं' हाथी की आवाज़ को 'बंहितं', घोडा की आवाज़ को 'हेषितं' (हेषारव), सामान्य पशुओं के शब्द को 'वासितं', मेघ (बादल) इत्यादि के शब्द को 'गर्जितं' सिंह इत्यादि के शब्द को 'गुञ्जितं' कहा जाता है और उसकी सिद्धि लक्ष्यानुसार होती है।
धातुओं की सिद्धि इस प्रकार होती है। जैसे सौत्र धातुओं में 'कण्डू' इत्यादि प्रतीत ही है और उसके अर्थ और उदाहरण इत्यादि 'धातोः कण्ड्वादेर्यक्' ३/४/८ सूत्र की बृहद्वृत्ति और बृहन्न्यास से ज्ञातव्य है।
शेष सौत्र धातुओं से 'कविकल्पद्रुम, उणादिगणवृत्ति, निघंटुवृत्ति, धातुपारायण' इत्यादि ग्रंथ में सूत्र से और अर्थ से, वर्ण के अनुक्रम से पृथक् पृथक् कहे गये धातुओ के 'क, च, ट, त, प' इत्यादि अनुबंध से 'अदादि'- इत्यादि गणनिर्दिष्ट कार्य होते हैं, धातु 'इदित्' या 'ङित्' हो तो आत्मनेपद, 'ईदित्' या 'गित्' हो तो उभयपद होता है और 'इ, इ, ई' या 'ग्' चार में से एक भी अनुबन्ध न होने पर. उसी धातु से 'शेषात्परस्मै' ३/३/१०० से परस्मैपदी मान लें। (न्या. सि.) १. क्वचित् सिंह की आवाज़ को 'गजितं' और भौरे की आवाज़ को 'गुञ्जितं' कही जाती है।
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