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अथ
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित
श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनगत पण्डित श्रीहेमहंसगणिभिः संगृहीत 'न्यायसङ्ग्रहे' एक एव न्यायस्वरूपोऽन्तिमश्चतुर्थो
वक्षस्कारः ॥ अब श्रीहेमहंसगणि ने पूर्व बताये हुए अठारह न्यायों के सदृश ही एक न्याय, विस्तृत रूप से बताना उचित होने से पृथक् कहा जाता है। ॥१४१॥ शिष्टनामनिष्पत्तिप्रयोगधातूनां सौत्रत्वाल्लक्ष्यानुरोधाद् वा सिद्धिः॥
शेष बचे हुए नाम, निष्पत्ति, प्रयोग और धातुओं की सौत्रत्व से या लक्ष्यानुरोध से सिद्धि होती है।
शिष्ट अर्थात् शेष बचे हुए, जिसकी व्याकरण से व्याख्या नहीं की गई हैं ऐसे नाम, निष्पत्ति अर्थात् व्युत्पत्ति, प्रयोग और धातुओं की ( उन सबकी) सिद्धि सौत्रत्व से अर्थात् व्याकरण इत्यादि के सूत्र में निर्दिष्ट होने से, या लक्ष्यानुरोध से अर्थात् लक्ष्य-महाकविओं के प्रयोग-अनुसार ज्ञातव्य है । यहाँ 'सिद्धिः' शब्द अन्तिम मङ्गल है।
उसमें 'नाम' की सिद्धि इस प्रकार है । चतुर्थी, षष्ठी इत्यादि । यहाँ 'चतुण्ाँ पूरणी, षण्णां पूरणी' वाक्य में 'चतुरः' ७/१/१६३ और 'षट् कति कतिपयात् थट्' ७/१/१६२ से 'थट्' प्रत्यय होने पर , 'नामसिदव्यञ्जने' १/१/२१ से पद संज्ञा होने पर 'चतुस्थी, षट्ठी' होने की प्राप्ति है किन्तु 'चतुर्थी' २/२/५३ और 'अज्ञाने ज्ञः षष्ठी' २/२/८० में सौत्रनिर्देश किया गया होने से 'चतुस्थी, षट्ठी' रूप नहीं होंगे।
लक्ष्यानुरोधाद् अर्थात् लक्ष्य अनुसार १. भिस्सटा, कच्छाटिका, ग्रामटिका' इत्यादि में 'ट' का आगम होता है।
न्या. सि. (न्यायार्थ सिन्धु) : इस न्याय की आवश्यकता बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि शास्त्रकार आचार्यश्री ने यथासंभव अर्थात् संभवतः जितनी संभावनाएँ हुयी उतनी लक्ष्यस्वरूप नाम इत्यादि अपने व्याकरण में सम्मिलित की हैं, तथापि नाम इत्यादि अनंत होने से, उन सबको व्याकरणशास्त्र में सम्मिलित करना प्राय: असंभव है, अतः शेष बचे हुए नाम, निष्पत्ति, प्रयोग, धातु इत्यादि, जो साक्षात् सूत्र में नहीं बताये हैं, उनका संग्रह करने के लिए यह न्याय है ।
शब्दानुशासन की मर्यादा बताते हुए भाष्यकार ने भी कहा है कि 'बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं शब्दपारायणं जगौ तथापि नान्तं जगाम ।' १. पतंजलिकृत महाभाष्य-पस्पशाह्निक।
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