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तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४०)
३५७ की निवृत्ति की है। उसके अलावा षष्ठी बहुवचन के 'आम्' की निवृत्ति के लिए दूसरा उपाय बताया है । वह इस प्रकार है -: 'आम्' की व्याख्या इस प्रकार करना कि जो 'आम्' 'आम्' ही रहता है, वैसे 'आम्' अन्तवाले शब्द की 'अव्यय' संज्ञा होती है । इस प्रकार अर्थ करने से षष्ठी बहुवचन 'आम्' का 'नाम' आदेश हो सकता है । उदा. 'मतीनाम्, मनसाम्' । इस प्रकार प्रायः सर्वत्र न्यायों के आश्रय और अनाश्रय के लिए ज्ञापक बताया जा सकता है।
तथापि क्वचित्/ कदाचित् न्यायों की प्रवृत्ति नहीं होती है, यही अर्थमूलक ही यह न्याय है और उसके लिए ही यह न्याय बताया है, ऐसा मानना चाहिए।
पाणिनीय क्वचित्/ कदाचित न्यायों की प्रवृत्ति नहीं होती है, वही अर्थमूलक ही यह न्याय है और उसके लिए ही यह न्याय बताया है, ऐसा मानना-चाहिए ।
पाणिनीय परम्परा में 'यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम्' न्याय है।
इति कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनस्य पण्डित श्रीहेमहंसगणिभिः स्वसमुच्चितानां पूर्वेभ्यो विलक्षणानां प्रायः ज्ञापकादिरहितानामष्टादशमितन्यायानां
तृतीय-वक्षस्कारस्य पण्डित श्रीहेमहंसगणिकृत-स्वोपज्ञन्यायार्थमञ्जूषा
नाम बृहवृत्तेश्च स्वोपज्ञन्यासस्य च
तपागच्छाधिराज - शासनसम्राट आचार्य श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां पट्टालङ्कार
__ आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरीश्वरैः सन्दृब्धं न्यायार्थसिन्धुं च तरङ्गं च क्वचित् क्वचिदुपजीव्य
शासनसम्राट आचार्य श्रीविजयनेमि-विज्ञान-कस्तूर-यशोभद्र-शुभङ्करसूरिणां पट्टधर आचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वराणां
शिष्य मुनि नन्दिघोषविजयकृतसविवरणं हिन्दीभाषानुवादः
समाप्तिमगात् ॥
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