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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) का आलम्बन लेता है, किन्तु जब गमन आदि कार्य नहीं होता है, तब दंड-लकडी का आलम्बन लेता नहीं है, उसी प्रकार से ये न्याय भी शिष्ट प्रयोग की अन्यथा अनुपपत्ति होती हो तो, उसकी निवृत्ति के लिए ही है । अन्यथा न्यायों का उपयोग नहीं होता है ।
इस न्याय की आवश्यकता बताते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि एक प्रयोग की सिद्धि में एक ही न्याय का एकबार आश्रय किया जाता है, और उसका ही बाद में तुरंत अन्य सूत्र के उपयोग करते समय आश्रय नहीं किया जाता है। दोनों परस्पर विरोधी है । ऐसी शंका की निवृत्ति के लिए यह न्याय है । उदा. 'रायमतिक्रान्तानां कुलानाम् अतिरीणाम्'। 'अतिरि' शब्द में 'रै' का 'क्लीबे' २/ ४/९७ से 'हुस्व' अर्थात् 'रि' हुआ है। बाद में यहाँ अतिरि आम्' में 'हुस्वापश्च' १/४/३२ से 'आम्' का 'नाम्' आदेश होने के बाद, एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय से प्राप्त 'आ रायो व्यञ्जने' २/१/ ५ सूत्र से होनेवाले 'आत्व' का 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' न्याय से निषेध होने से नहीं होगा क्योंकि वैसा करने से हस्व का विघात होता है । अब, 'अतिरीणाम्' करते समय 'दी? नाम्यतिसृचंतसृषः' १/४/४७ से 'रि' के 'इ' का दीर्घ 'ई' करते समय 'सन्निपातलक्षणो'-न्याय का आश्रय करेंगे तो दीर्घविधि नहीं हो सकेगी क्योंकि 'नाम्' आदेश करनेवाले 'हूस्वत्व' का ही 'नाम्' आदेश नाश करता है, तथापि यहाँ इस न्याय के आधार पर, वही 'सन्निपातलक्षणो-' न्याय का आश्रय नहीं करना, अतः 'अतिरीणाम्' प्रयोग सिद्ध हो सकेगा।
उसी तरह 'वत्तस्याम्' १/१/३४ सूत्र में 'वत्' और 'तस्' प्रत्यय तद्धित सम्बन्धित ही होने से उसके साहचर्य से 'आम्' प्रत्यय भी तद्धित सम्बन्धित ही लेने का सिद्ध हो सकता है तथापि 'साहचर्यात्' न्याय का आश्रय नहीं करने से 'परोक्षा' के स्थान पर हुए 'आम्' का भी ग्रहण हो जाता है, किन्तु उसी तरह षष्ठी बहुवचन के 'आम्' का ग्रहण नहीं होता है क्योंकि उसी समय 'साहचर्यात्' न्याय का आश्रय किया जाता है।
ऐसे प्रयोग की सिद्धि करते समय, एक ही न्याय का आश्रय और अनाश्रय देखने को मिलता है और उसके परिणाम स्वरूप होनेवाली प्रयोगसिद्धि इस न्याय का ज्ञापक है।
- इसी 'न्यायसङ्ग्रह' में दिये गये न्याय में से किसी भी न्याय के अनाश्रय के लिए कोई भी ज्ञापक अवश्य होना चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं । जैसे 'अतिरीणाम्' में, 'आ रायो व्यञ्जने' २/१/५ से 'आ' न करने के लिए 'सन्निपातलक्षणो-' न्याय का आश्रय किया गया है। दीर्घविधि में इसी न्याय के अनाश्रय करने के लिए कौनसा ज्ञापक है? इसके लिए वे कहते हैं कि दीर्घ विधायक 'दी? नाम्यतिसृचतसृषः १/४/४७ में 'तिसृ' और 'चतसृ' का वर्जन ही 'सन्निपात लक्षणो-' न्याय के अनाश्रयण का ज्ञापक है क्योंकि 'सन्निपातलक्षणो-' न्याय से 'तिसृ-चतसृ' के दीर्घ की निवृत्ति हो सकती थी, तथापि उसका वर्जन किया, वह, 'सन्निपातलक्षणो-' न्याय के अनाश्रयण का ज्ञापन करता है।
उसी प्रकार 'वत्तस्याम्' १/१/३४ सूत्र के बृहन्यास में अविभक्तित्व स्वरूप साहचर्य का आश्रय करके, परोक्षा के स्थान पर हुए 'आम्' का ग्रहण किया है और षष्ठी-बहुवचन के 'आम्'
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