________________
तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४०)
३५५ है। यही लाघव दो प्रकार के हैं। (१) शब्दगत लाघव (२) प्रक्रियागत लाघव । उसमें शब्द लाघव इस प्रकार है - "आयो डितां यै यास् यास् याम्' १/४/१७ सूत्र में चार 'ङित्' प्रत्यय (डे, ङसि ङस् और ङि) के साथ 'यै यास् यास् याम्' का 'यथासङ्ख्यम्' करने के लिए 'याम्' से 'जस्' प्रत्यय लाकर, उसका सौत्रत्वात् लोप किया गया है।
प्रक्रियालाघव इस प्रकार है-: 'भीलुक' की सिद्धि के लिए "भियो रुरुकलुकम्' ५/२/ ७६ सूत्र में 'लुक' प्रत्यय का 'रुक' से भिन्न विधान किया है, वह प्रक्रिया लाघव के लिए है। अन्यथा 'रुक' प्रत्यय करके, भीरुक' सिद्ध करके, ऋफिडादीनाम्'- २/३/१०४ में बहुवचन होने से आकृतिगण है, अतः उसके द्वारा या 'ऋफिडादि' शब्दों में 'भीरुक' का पाठ करने से ही लत्व हो सकता है, किन्तु वैसा करने से प्रक्रिया गौरव हो जाता हैं, अत: 'रुक' और 'लुक' दो प्रत्यय का विधान किया है।
ते वै विधयः सुसङ्ग्रहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्व'। इस न्याय का अर्थ यह है कि शास्त्र में दो प्रकार के वचन मिलते हैं । (१) कुछेक संक्षिप्त हैं (१) जबकि कुछेक विस्तृत हैं। (१) जो सूक्ष्मबुद्धिमान् हैं, उनके लिए संक्षिप्त वचन हैं । (२) जबकि जो स्थूलबुद्धिवाले हैं उनके लिए ही प्रपंच अर्थात् विस्तृत वचन है और शास्त्र सदैव परोपकार के लिए ही लिखा जाता है और उसी शास्त्र का अध्ययन करनार भी दो प्रकार के होते हैं, अतः उपर्युक्त दोनों प्रकार के वचन शास्त्रों में हैं।
'स्तम्बेरमः' इत्यादि प्रयोग में 'तत्पुरुषे कृति' ३/२/२० स्वरूप लक्षण सूत्र से अकारान्त और व्यञ्जनान्त से पर आयी हुयी सप्तमी का कृदन्त उत्तरपद पर में होने पर लोप नहीं होता है और यही अर्थ उससे अगले सूत्र में प्रपंचित किया गया है। जैसे 'शयवासि वासेष्वकालात्' ३/२/२५, 'वर्षक्षर-वराप्सरःशरोरोमनसो जे '३/२/२६ सूत्र से पूर्वोक्त विषय में सप्तमी का विकल्प से 'अलुक्' होता है। उदा. 'बिलेशयः, विलशयः, वर्षेजः, वर्षजः' इत्यादि । जबकि 'धुप्रावृट्वर्षाशरत् कालात्' ३.२/२७ सूत्र से पूर्वोक्त विषय में सप्तमी का नित्य अलुप होता है। उदा. दिविजः । बाद में अगले 'नेन् सिद्धस्थे' ३/२/२९ सूत्र में सप्तमी के अलुप् का निषेध होता है अर्थात् लुप् होता ही है ऐसा कहा है । उदा. 'स्थण्डिलशायी,' इन सब प्रयोग की सिद्धि 'तत्पुरुषे कृति' ३/२/२० सूत्र में 'अव्यञ्जनात् सप्तम्या बहुलम्' ३/२/१८ सूत्र से चली आती 'बहुलम्' पद की अनुवृत्ति से हो सकती है, तथापि ये सूत्र बनाये, वह 'तत्पुरुषे कृति' ३/२/२० का ही विस्तार किया है, वैसा यह न्याय कहता है। यह न्याय अन्य किसी परिभाषासंग्रह में प्राप्त नहीं है ।
॥१४० ॥ न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः ॥ १८ ॥ 'न्याय' वृद्ध की लकडी जैसे हैं । जैसे वृद्ध पुरुष गमन आदि क्रिया के समय, उसी क्रिया की सिद्धि के लिए लकडी-दंड
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.