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________________ [40] उन्नीस कृतियाँ प्रकाशित की गई है। उसमें बारह परिभाषावृत्तियाँ है, जबकि शेष सात केवल परिभाषाओं की सूची स्वरूप ही है। व्याडि के 'परिभाषासूचन' के बाद कालानुक्रम से आनेवाले परिभाषापाठ में शाकटायन और चान्द्र परिभाषासूचियाँ आती है। उस पर वृत्ति प्राप्त नहीं होती है। चान्द्र परिभाषापाठ में ८६ परिभाषाएँ है उसमें से बहुत सी परिभाषाएँ किसी न किसी परम्परा में प्राप्त है ही, तथा चान्द्र व्याकरण की मूल प्रति प्राप्त न होने से उसमें निर्दिष्ट परिभाषाओं की विशेषता के बारे में विशेष प्रकाश डालना संभव नहीं है, अतः इसके बारे में यहाँ कोई चर्चा नहीं की जायेगी। उसके बाद कातन्त्र, कालाप, जैनेन्द्र, भोज और सिद्धहेम परम्पराओं की परिभाषावृत्तियाँ या परिभाषासूचियाँ प्राप्त होती है। उसमें भी कातंत्र परम्परा की दो परिभाषावृत्तियाँ प्राप्त है । एक के वृत्तिकार है दुर्गसिंह और दूसरी के वृत्तिकार है भावमिश्र । यही कातंत्र व्याकरण परम्परा का उद्भव पूर्वभारत/बांग्ला में ईसा के शुरु के शतकों में हुआ और फैली। पूर्वभारत में विशेषतः इसी व्याकरण का प्रचार रहा था । कातंत्र व्याकरण के निर्माता राजा शर्ववर्मन् और कात्यायन थे । इसी व्याकरण में परिभाषावृत्तिकार श्रीदुर्गसिंह के कथनानुसार केवल ४५० सूत्र है, जिसमें परिभाषासूत्रों का समावेश नहीं होता है। जबकि इसकी छपी हुई सभी आवृत्तियों में प्रायः १४०० सूत्र हैं। कातंत्र की कुछेक बंगाली आवृत्तियां में उसी व्याकरण के अन्त में कुछेक परिशिष्ट मिलाये गए हैं। वैसे तो ये परिशिष्ट शायद सूत्रकार ने स्वयं बनाये हो ऐसा लगता है, जैसे सूत्रकार अपने व्याकरण सम्बन्धित गणपाठ और धातुपाठ की रचना करते हैं । इसमें पहले परिशिष्ट में ६७ परिभाषासूत्र दिये हैं, जबकि दूसरे परिशिष्ट में २९ बलाबलसूत्र दिये हैं, जो वस्तुतः अन्य व्याकरण परम्परा में परिभाषा के रूपमें प्रसिद्ध है । ये दोनों परिशिष्ट ऊपर परिभाषावृत्तिकार दुर्गसिंह ने स्वयं कोई वृत्ति नहीं लिखी है और डो. एजीलिङ्ग ने अपने द्वारा सम्पादित आवृत्ति में इनको परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित नहीं किये हैं। अतः ऐसा अनुमान हो सकता है कि ये परिशिष्ट बाद में हुए वृत्तिकारों की रचना है। ये दोनों परिशिष्ट संयुक्त रूप से प्रो. के. वी अभ्यंकरजी ने कातंत्र परिभाषापाठ से प्रकाशित किये हैं। दूसरी, भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति, दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति के बाद रची गयी है । वृत्तिकार भावमिश्न के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। यही वृत्ति दुर्गसिंहकृत वृत्ति के समान महत्त्वपूर्ण नहीं है और इसमें बहुत संक्षेप में परिभाषाओं के अर्थ बताये हैं किन्तु उन परिभाषाओं के अस्तित्व के कोई सबूत बताये नहीं है। केवल परिभाषाओं की प्रवृत्ति के उदाहरण ही प्रस्तुत किये हैं। उसका क्रम शायद व्याडि के परिभाषासूचन से मिलता-झुलता है। कालापपरिभाषासूत्रपाठ, कातंत्र के बाद दिया है। शायद यही व्याकरण भी, पूर्वभारत में प्रचलित होगा। कालाप परम्परा के बारे में कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं है, अतः यहाँ केवल उसके परिभाषापाठ का ही विचार किया जाता है। वैसे यही परिभाषापाठ की ११८ परिभाषा में से बहुत सी परिभाषाएँ सर्वमान्य और सर्वसामान्य ही है तथापि कुछ अन्य परम्पररा में अप्राप्त भी है। वह इस प्रकार है - १. अन्यकार्यात् परा द्विरुक्तिः परोक्षालिङ्गादिषु ॥४७॥ २. अप्राप्तपूर्विका हि विभाषा तदुद्देश आदौ ॥७९॥, ३. स्थितानामन्वाख्यानं हि व्याकरणम् ॥११३॥, ४. स्वगुरूपलक्षणोक्तं च ॥९०॥ इससे अतिरिक्त एक परिभाषा 'सिद्धे सत्यारब्धो विधिनियमाय विकल्पाय ज्ञापकाय वा' ॥७७॥ सबसे विशिष्ट है । यद्यपि सभी परिभाषासंग्रहकारों ने 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः' परिभाषा दी है, किन्त यहाँ 'विकल्पाय ज्ञापकाय वा' शब्द कातंत्र परिभाषापाठ व कालापपरिभाषापाठ को छोडकर अन्यत्र कहीं नहीं है। जैनेन्द्र व्याकरण की रचना पूज्यपाद देवनन्दि ने की है । जैनेन्द्र व्याकरण के बारे में एक मान्यता यह प्रचलित है कि जब श्रमण भगवान महावीर को बाल्यावस्था में पढाने के लिए पाठशाला में भेजे गए तब इन्द्र महाराज ने स्वयं आकर, बालक वर्धमान को विभिन्न प्रश्न पूछे, जिनके बारे में स्वयं पंडित को भी संशय था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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