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________________ [39] अपवादविधि का निर्णय करने में दूसरी भी एक परिभाषा यत्किञ्चित् सहायता करती है। वह है - 'अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' (क्र. नं. ६१. परिभाषेन्दुशेखर)। सिद्धहेम में वह 'अनन्तरस्यैव विधिनिषेधो वा' (३-११) स्वरूप में है। अपवादविधि का स्पष्टीकरण करनेवाली अन्य परम्परागत परिभाषाएँ इस प्रकार है - १. प्रकल्प्य चापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविशते (क्र. नं. ६३, परिभाषेन्दुशेखर) २. पूर्वं ह्यपवादा अभिनिविशन्ते पश्चादुत्सर्गाः (क्र. नं. ६२, परिभाषेन्दुशेखर) ३. उपसंजनिष्यमाणनिमित्तोऽप्यपवाद उपसंजातनिमित्तमप्युत्सर्गं बाधत इति (क्र. नं. ६८, परिभाषेन्दुशेखर) ४. क्वचिदपवादविषयेऽप्युत्सर्गोऽभिनिविशत इति (क्र. नं. ५८, परिभाषेन्दुशेखर) ५. अपवादो यद्यन्यत्र चरितार्थस्तन्तरङ्गेण बाध्यते (क्र. नं. ६५, परिभाषेन्दुशेखर) १८. परिभाषाओं की प्रवृत्ति और उसका नियन्त्रण । व्याकरणशास्त्र के सूत्रों की प्रवृत्ति इष्ट प्रयोगों की सिद्धि करने के लिए व अनिष्ट प्रयोगों की सिद्धि रोकने के लिए ही होती है, वैसे परिभाषा या न्यायों की प्रवृत्ति भी इष्ट प्रयोग की सिद्धि करने के लिए व अनिष्ट प्रयोग की सिद्धि को रोकने के लिए ही की जाती है। यदि किसी भी न्याय की प्रवृत्ति से अनिष्ट रूपों की सिद्धि होती हो तो उसी न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । यही बात 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः ॥५७॥ न्याय में भलीभाँति बतायी है। यही 'न्यायसंग्रह' में निर्दिष्ट सभी न्याय प्रायः अनित्य है। न्यायों की ऐसी अनित्यता बताना आवश्यक ही है क्योंकि यदि ऐसी अनित्यता न बतायी होती तो न्यायों की तथा उसके अनुसार सूत्रों की अवश्य प्रवृत्ति होने पर अनिष्ट रूपों की सिद्धि होती । अतः जहाँ पर न्याय की प्रवृत्ति से अनिष्ट रूपों की सिद्धि होने की आपत्ति आती हो वहाँ उसी न्याय की अनित्यता का आश्रय करके या 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः ॥५७॥ या 'न्याया: स्थविरयष्टिप्रायाः' (३-१८) न्याय के अनुसार उसी न्याय की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। कुछेक न्यायों का स्वरूप ही ऐसा है, जो उसकी प्रवृत्ति को यादृच्छिकता प्रदान करता है । वे न्याय इस प्रकार है - १. विवक्षातः कारकाणि (१-११), २. अपेक्षातोऽधिकारः (१-१२) ३. क्वचिदुभयगतिः (१-२४), ४. यावत्संभवस्तावद्विधिः (२-५६), ५. व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः (२-६४) ६. पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः (३१२) ७. विचित्रा शब्दशक्तयः (३-१६)८. किं हि वचनान्न भवति (३-१७), ९. शिष्टनामनिष्पत्तिप्रयोगधातुनां सौत्रत्वाल्लक्ष्यानुरोधाद् वा सिद्धिः ॥ (४-१) ये सभी न्याय व्याकरण के सूत्र की प्रवृत्ति को यादृच्छिकता तो प्रदान करते ही है, साथ साथ जहाँ जहाँ अनिष्टरूपों की आपत्ति आती है, वहाँ वहाँ व्याकरण के सत्र व न्याय की प्रवृत्ति को रोकते भी हैं। - इसी 'न्यायसंग्रह' में अन्तिम जो न्याय है वह इस बात का द्योतक है कि जिन नामों की निष्पत्ति, जो प्रयोग और धात इत्यादि. इसी व्याकरण के सत्र से या इसी 'न्यायसंग्रह में बताये गये न्य सिद्ध न हो सकते हो, तथापि वे यदि किसी भी व्याकरण के सूत्रों में प्रयुक्त हो या शिष्टसाहित्य में प्रयुक्त हो, तो उसे सौत्रत्व से या लक्ष्यानुसार स्वयं सिद्ध मानने चाहिए । १९. व्याकरण की विभिन्न परम्पराओं में निर्मित परिभाषावृत्तियाँ या परिभाषापाठ संस्कृत व्याकरणशास्त्र के विषय में विचार करने पर विभिन्न व्याकरण परम्पराएँ नजर समक्ष आती है। वे इस प्रकार है - पाणिनि, शाकटायन, चान्द्र, कातंत्र, कालाप, जैनेन्द्र, भोज, सिद्धहेम, बुद्धिसागर, मलयगिरिशब्दानुशासन । उनमें से शुरु की आठ व्याकरण परम्पराओं की परिभाषावृत्ति या परिभाषापाठ वर्तमान में उपलब्ध है। प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी द्वारा संपादित 'परिभाषासंग्रह' नामक ग्रंथ में ऐसी व्याकरण परिभाषाओं की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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