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हो सकता है ? तथा बाधक कौन होता है ? उसकी स्पष्ट व्याख्या निम्नोक्त तीन न्यायों में पायी जाती है। यं विधि प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते' ॥३८॥ इस न्याय में बाध्य कौन हो सकता है, वह बताया है तो उसके बाद आये हुए 'यस्य तु विधेनिमित्तमस्ति नासौ विधिर्बाध्यते' ॥३९॥ न्याय में बाध्य कौन नहीं हो सकता है, वह बताया है। आगे चलकर बाधक या अपवाद कौन होता है, वह 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः' ॥४०॥ न्याय में बताया है और यही अपवादविधि दो प्रकार की होती है । १. विशेषविधि २. निरवकाशविधि 6 ये दोनों आपवादशास्त्र होने पर भी दोनों में सूक्ष्म अन्तर है। विशेषविधि और निरवकाशविधि की समझ, पाणिनीय परम्परा के वैयाकरणों ने अनुक्रम से 'तक्रकौण्डिन्यन्याय' और 'माठरकौण्डिन्यन्याय' द्वारा दी है। उसमें यही सूक्ष्म अन्तर स्पष्टतया मालूम पडता है।
'सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दधि दीयतां, तक्रं कौण्डिन्याय ।' यहाँ कोण्डिन्य भी ब्राह्मण होने से 'सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दधि दीयतां' से उसको भी दधिदान किया जा सकता है, किन्तु उपर्युक्त वाक्य के शेष अंश 'तक्रं कौण्डिन्याय' (कौण्डिन्य को तक्र देना) से कौण्डिन्य को दधिदान का निषेध हो जाता है क्योंकि कौण्डिन्य को तक्र देने का विशेष रूप से विधान किया गया है। यहाँ दधिदान का संभव होने पर विशेषविधि स्वरूप तक्रदान से निषेध ज्ञापित होता है।
जबकि 'माठरकौण्डिन्य' न्याय में कहा गया है कि - 'सर्वे ब्राह्मणा भोज्यन्तां, माठरकौण्डिन्यौ परिवेविषाताम्' । यहाँ माठर, कौण्डिन्य दोनों ब्राह्मण हैं तथापि उन दोनों को भोजन के लिए बैठे हुए अन्य सभी ब्राह्मणों को भोजन सामग्री परोसने को कहा गया, उससे ही उनको उसी समय भोजन करने का निषेध हो जाता है। यहाँ भोजन का और परोसने का दोनों कार्य एक साथ करना माठर-कौण्डिन्य के लिए असंभव है, अर्थात् भोजन परोसने का कार्य करते समय भोजन करने का सर्वथा असंभव है, अत: वह अनवकाश विधि है । यद्यपि सिद्धहेम की परम्परा में ऐसी चर्चा प्राप्त नहीं है, तथापि आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिजीकृत 'न्यायसमुच्चय' की 'तरङ्ग' टीका में 'निरवकाशं सावकाशात्' न्याय की चर्चा करते हुए उपर्युक्त दोनों न्याय (तक्रकौण्डिन्य और माठरकौण्डिन्य) का उदाहरण दिया है।
बाधक निरवकाश स्वरूप होने से वह अपवाद है, अतः वह सर्वथा बलवान् होता है। उसका निर्णय होने के बाद बाध्य का विचार किया गया है । कुछेक अपवादसूत्र ऐसे हैं जो एक से अधिक सामान्यसूत्रों या उत्सर्गसूत्रों का बाध करते हैं, ऐसे सूत्र द्वारा कौन से सूत्रों का बाध होता है, उसकी विचारणा को बाध्यसामान्यचिन्ता' कही गई है। जबकि कुछेक अपवादसूत्र ऐसे हैं, जो बहुत से उत्सर्गसूत्र में से किसी एक का ही बाध करते हैं। वे किस सूत्र का कैसे बाध करते हैं ? उसकी विचारणा को 'बाध्यविशेषचिन्ता' कही गई है।
विभिन्न परिभाषासंग्रहकारों ने यही बात 'सति संभवे बाधः, असति संभवे बाधः' और 'अस्ति च संभवो
तीन परिभाषाओं द्वारा बतायी है। सति संभवे बाधः' में 'तक्रकौण्डिन्यन्याय' गर्भित है तो 'असति संभवे बाधः' में अनवकाशत्व निर्दिष्ट है जबकि 'अस्ति च संभवो यदुभयं स्यात्' में सर्वथाऽनवकाशत्व है ही।
यही 'अपवादशास्त्र' का निर्देश सब से प्राचीन माने जाते प्रातिशाख्यों में भी प्राप्त होता है। उसके बारे में प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने बताया है कि “The ancient Pratisakhya works have discussed the relation of apavāda and utsarga rules and stated that the utsarga or the general rules should always be interpreted along with the particular as stated in the line 'न्यायैर्युक्तानववादान् प्रतीयात्'62 60. The Paribhāsā given by them is 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधको भवति'. The apavidavidhi
or the rule of exception hence, can be said to be of two kinds faguraft and frachtgfafti.
(Introduction, Paribhāsendusekhara by Prof. K. V. Abhyankar. Pp. 31) 61. 'न्यायसमुच्चय'-तरङ्ग टीका-पृ. ८१. 62. Introduction of Paribhasendusekhara by Prof. K. V. Abhyankara pp.31
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