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और बालक वर्धमान ने, उन सभी प्रश्नों के उत्तर दिये, जो आगे चलकर ऐन्द्र व्याकरण से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि वे सभी प्रश्न इन्द्र द्वारा पूछे गये थे। किन्तु वही ऐन्द्र व्याकरण वर्तमान में कहीं भी प्राप्त नहीं है। कुछेक अनुसन्धानकार उसी व्याकरण को ही जैनेन्द्र व्याकरण कहते हैं और वर्तमान में प्राप्त व्याकरण को वही व्याकरण कहते हैं, किन्तु वह भी उचित नहीं है क्योंकि उसमें सिद्धसेन दिवाकरजी, समन्तभद्र, स्कन्दगुप्त द्वारा हूण लोगों पर प्राप्त विजय के उदाहरण प्राप्त हैं। अतः यही जैनेन्द्र व्याकरण कम से कम ईसा की पांचवीं सदी के उत्तरार्ध में या उसके बाद ही रचा गया है। यही जैनेन्द्र व्याकरण की दो विभिन्न परम्पराएँ हैं । अभयनन्दि द्वारा लिखी - गई सुप्रसिद्ध महावृत्ति में ३००० सूत्र हैं। जबकि ईसा की पन्द्रहवीं सदी में सोमदेव द्वारा लिखी गई वृत्ति में ३७०० सूत्र हैं।
इसी जैनेन्द्र परम्परा में कोई प्राचीन परिभाषावृत्ति उपलब्ध नहीं है, किन्तु महावृत्ति के आधार पर प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने एक परिभाषावृत्ति बनायी है । इसके बारे में आगे चर्चा की जायेगी।
___ आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी से थोडे समय ही पूर्व हुए धारानगरी (मालवा ) के राजा भोज द्वारा एक संस्कृत व्याकरण का निर्माण किया गया था, जिसका नाम था सरस्वतीकण्ठाभरण । उसे भोज व्याकरण भी कहा जाता है।
यद्यपि इसी व्याकरण में राजा भोज ने पाणिनीय व्याकरण की पद्धति व संज्ञा का स्वीकार किया है, तथापि विद्वानों में एक मान्यता यही प्रचलित रही है कि आचार्य श्रीहेमचन्द्रसरिजी ने इसी व्याकरण का अनुसरण किया है। हालाँकि सिद्धहेम की रचना करते समय उनके सामने बहुत से व्याकरण मौजूद थे, उसमें भोज व्याकरण का भी स्थान था ही, किन्तु उनके अनुकरण में भी मौलिकता दृष्टिगोचर होती है।
उसी भोज व्याकरण या सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद में सूत्रक्रमांक १-२-१८ से १-२-१३५ तक परिभाषा सूत्र बताये गये हैं। उसमें से बहुत से सिद्धहेम की परम्परा में प्राप्त हैं, तो कुछेक पाणिनीय परम्परा में ही प्राप्त हैं क्योंकि उन्होंने पाणिनीय परम्परा का अनुसरण किया है।
'परिभाषासंग्रह' में 'न्यायसंग्रह' के न्यायों की सूची के बाद, जो परिभाषावृत्तियाँ या परिभाषापाठ दिये हैं, वे सभी पाणिनीय परम्परा के ही हैं । उसमें सर्व प्रथम बारहवीं सदी में पुरुषोत्तमदेव द्वारा बनायी हुई लघुपरिभाषावृत्ति आती है। शायद वह बिहार या बांगला प्रदेश का रहनेवाला होगा । कदाचित् बौद्ध परम्परा का अनुयायी हो ऐसी संभावना अस्थानापन्न नहीं है क्योंकि अपनी भाषावृत्ति शुरु करते समय उन्होंने बुद्ध को नमस्कार किया है। पुरुषोत्तमदेव उनके समय के जाने माने विद्वान थे, उसमें कोई संदेह नहीं है क्योंकि उनके, परिभाषावृत्ति को छोडकर ज्ञापकसमुच्चय, हारावली, त्रिकाण्डशेष, एकाक्षरकोष, प्राणपणा इत्यादि ग्रंथ भी प्राप्त हैं।
सीरदेव, प्रायः पुरुषोत्तमदेव के बाद थोडे ही समय में हुए और वे भी पूर्वभारतीय व्याकरण परम्परा के निष्णात थे, और शायद बौद्ध सम्प्रदाय को माननेवाले थे, ऐसा एक अनुमान है। उनकी बनायी हुई परिभाषावृत्ति पुस्त्रोत्तम देव की परिभाषावृत्ति की अपेक्षा बृहत् होने से उसे बृहत्परिभाषावृत्ति कही गई है । यही परिभाषावृत्ति सचमुच बृहत् ही है । उसमें कुल मिलाकर १३० परिभाषाएँ है । उसके साथ श्रीमानशर्मनिर्मित बृहत्परिभाषाटिप्पणी भी है, जिसका अपरनाम 'विजया' है। उनकी परिभाषाओं का क्रम उसके पूर्वकालीन वैयाकरणों से सर्वथा भिन्न है। उसकी वृत्ति में पाये जाते संदर्भो से पता चलता है कि उन्होंने महाभाष्य, काशिकावृत्ति, अनुन्यास, भागवृत्ति, तंत्रप्रदीप इत्यादि प्राचीन ग्रंथों का गहन अध्ययन किया होगा । काशिकावत्ति के उद्धरण देते हए वे उसके लेखक का निर्देश वृत्तिकृत्, वामन, जयादित्य और काशिकाकार शब्दों से करते हैं। तो न्यासकार का निर्देश 'न्यासकृत, न्यासकार' व 'जिनेन्द्रबुद्धि' शब्दों से करते हैं । वैसे तन्त्रप्रदीप के कर्ता का निर्देश 'मैत्रेय, रक्षित' या 'मैत्रेयरक्षित' से करते है । सीरदेव की यही बृहत् परिभाषावृत्ति प्राय: चार से पांच सदीयाँ तक अखिल भारत में एक प्रमाणभूत 63. द्रष्टव्य : कल्पसूत्र, श्रीविनयविजयजीकृत सुबोधिका टीका, पंचमः क्षणः ।
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