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तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १३१)
॥१३१॥ प्रत्ययलोपेऽपि प्रत्ययलक्षणं कार्यं विज्ञायते ॥९॥ 'प्रत्यय' का लोप होने पर भी, उसी प्रत्ययनिमित्तक कार्य होता है।
'लुक्' और 'लुप्' दोनों का वाचक 'लोप' शब्द है, तथापि 'लुक' में स्थानिवद्भाव से कार्य सिद्ध हो जाता है । अतः 'लुप्' में इस न्याय का अधिकार आता है अर्थात् यहाँ 'लोप' शब्द से 'लुप्' का ग्रहण करना ।
प्रत्यय का ‘लुप्' होने पर, 'लुप्यय्वृल्लेनत्' ७/४/११२ सूत्र से 'यवृत्' लत्व' और 'एनत्' आदेश के वर्जन से ऐसा कहा है कि 'यवृत्' लत्व' और 'एनत्' से भिन्न 'लुप्तप्रत्ययनिमित्तक' कोई भी कार्य नहीं होता है, तथापि 'लुप्तप्रत्ययान्तनिर्दिष्ट' अन्य कार्य की अनुमति प्राप्त करने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'मासेन पूर्वाय मासपूर्वाय' । यहाँ ‘मासेन पूर्वाय' में 'तृतीयान्तात् पूर्वावरं योगे '१/ ४/१३ सूत्र से सर्वादित्व का निषेध हुआ है। अब 'मासपूर्वाय' समास में 'मास' शब्द से तृतीया विभक्ति का 'ऐकायें ' ३/२/८ से लोप हुआ है, तथापि तृतीयान्त के कारण होनेवाले 'सर्वादित्व' का निषेध यहाँ भी होगा।
तथा 'पापचीति' । यहाँ 'लुबन्तरङ्गेभ्यः' न्याय से प्रथम ही 'यङ्' प्रत्यय का लोप होने पर भी इस न्याय से यङन्तलक्षण द्वित्व 'सन्यङश्च' ४/१/३ सूत्र से होगा।
_ 'सिज्विदोऽभुवः' ४/२/९२ सूत्रगत 'भू' के वर्जन द्वारा इस न्याय का ज्ञापन हुआ है। यहाँ 'अभूवन्' में 'अन्' के 'पुस्' आदेश का निषेध करने के लिए 'भू' का वर्जन किया है। वस्तुतः 'अन्' के 'पुस्' आदेश की प्राप्ति ही यहाँ नहीं है क्योंकि 'भू' धातु से पर आये हुए 'सिच्' का 'पिबैतिदाभूस्थः सिचो लुप्-' ४/३/६६ सूत्र से लोप होता है, अत: सिजन्त भू' मिलनेवाला नहीं और 'सिज्विदोऽभुव:' ४/२/९२ में 'सिजन्त' का ग्रहण किया है,तथापि 'भू' धातु का वर्जन किया है इससे सूचित होता है कि 'लुप्तसिजन्त' को भी इस न्याय से 'सिजन्तलक्षण' कार्य होगा।'
यह न्याय अनित्य है, अत एव 'यौधेय' शब्द का 'अञ्' के लोपविधायक 'द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादेः' ६/१/१२३ सूत्रगत 'भर्गादि' गण में पाठ किया है । इस प्रयोग की साधनिका इस प्रकार है । 'युधा' नामक किसी स्त्री के संतान अर्थ में 'युधा' शब्द से, (युधाया अपत्यानि) द्विस्वरादनद्याः'६/१/७१ से 'एयण' प्रत्यय होकर 'यौधेयाः' होगा। ते शस्त्रजीविसाः स्त्रीत्वविशिष्टाः' अर्थयुक्त 'यौधेय' आदि शब्द से 'यौधेयादेः'- ७/३/६५ से द्रिसंज्ञक 'अन्' प्रत्यय होगा, बाद में स्त्रीत्वविशिष्ट की विवक्षा में 'अणजेयेकण- २/४/२० सूत्र से ङी प्रत्यय होकर 'यौधेयी' शब्द होगा । इसका प्रथमा विभक्ति बहुवचन में 'यौधेय्यः' रूप होगा । यहाँ 'अञन्त यौधेय' शब्द के 'अञ्' का 'द्रेरणो- '६/१/१२३ से लोप होनेकी प्राप्ति है और अब्' का लोप करने पर 'निमित्ताभावे-' न्याय से अग्निमित्तक' उ' की वृद्धि की निवृत्ति होने पर 'युधेय्यः' रूप होगा, किन्तु यह बात सही प्रतीत नहीं होती है क्योंकि 'यौधेय' में उ की वृद्धि
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