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________________ ३४२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'एयण' निमित्तक है, किन्तु अग्निमित्तक नहीं है, अतः एयण की निवृत्ति होने पर ही 'उ' की वृद्धि की निवृत्ति होती है, अतः यहाँ "लोपाभावात्तु 'यौधेय्यः' इत्येव स्थितम् " कहना उचित प्रतीत नहीं होता है । बाद में 'यौधेयीनां सङ्ग्रो यौधेयम्' यहाँ 'अञन्तलक्षण अण्', 'सङ्घघोषाङ्कलक्षणेऽञ्यञिञः' ६/१/१७२ सूत्र से करना है । इसलिए 'भर्गादि' गण में 'यौधेय' शब्द का पाठ किया है । अतः 'यौधेय' शब्दस्थ 'शस्त्रजीविसंघ' अर्थवाले 'अञ्' का लोप नहीं होता है । यदि यह न्याय नित्य होता तो, 'अञ्' लोप होने पर भी 'सङ्घघोषाङ्क' - ६/३/१७२ से अञन्तलक्षण ' अण्' होता ही, तो इसके लिए 'यौधेय' शब्दका 'भर्गादि' गण में पाठ करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि 'भर्गादि' गणमें पाठ किया, वह इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है । अत: 'अञ्' का लोप होने से, कदाचित् 'अण्' नहीं होगा ऐसी आशंका से ही 'भर्गादि' गण में 'यौधेय' शब्द का पाठ किया है । I यदि 'यौधेय' शब्द का 'भर्गादि' गण में पाठ न किया होता तो, क्या होता ? इसके बारे में इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यदि 'भर्गादि' गण में पाठ न किया होता तो ‘द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादेः ६/१/१२३ से 'अञ्' का लोप होता और 'सङ्घघोषाङ्क'- ६/३/१७२ से 'अण्' न होकर 'गोत्राददण्ड- ' ६/३/१६९ से 'अकञ्' प्रत्यय होता । जैसे 'पाञ्चालस्य राज्ञोऽपत्यानि, ' अर्थ में 'राष्ट्रक्षत्रियात्' - ६ / १ / ११४ से द्रिसंज्ञक 'अञ्' प्रत्यय होकर 'बहुष्वस्त्रियाम्' ६/१/१२४ से 'अञ्' प्रत्यय का लोप होने पर 'पञ्चालाः ' होगा । बाद में 'पञ्चालानां सङ्घः' अर्थ में, यह न्याय अनित्य होने से 'अञ्' के अभाव में 'सङ्घ घोषाङ्क- '६/३/१७२ की प्राप्ति नहीं होगी और 'गोत्राददण्ड' ६/३/१६९ से 'अकञ् होने पर 'पाञ्चालकम्' होगा। उसी प्रकार यहाँ 'यौधेयी' शब्द से भी 'अकञ्' होगा किन्तु आचार्यश्री को वह इष्ट नहीं है, अतः भर्गादिगण में 'यौधेय' शब्द का पाठ करके इस न्याय की अनित्यता बतायी है । यह न्याय कातंत्र की दोनों परिभाषावृत्तियों, कातंत्रपरिभाषापाठ, कालाप व जैनेन्द्र में प्राप्त है, अन्यत्र नहीं । ॥ १३२ ॥ विधिनियमयोर्विधिरेव ज्यायान् ॥ १० ॥ 'विधि' और 'नियम' में से विधि ही श्रेष्ठ है । सूत्र की व्याख्या के दो प्रकार हैं । (१) विधिरूप व्याख्या (२) नियमरूप व्याख्या ( १ ) विधि अर्थात् जहाँ पूर्णरूप से प्राप्ति न हो, वहाँ प्राप्ति करना (२) नियम अर्थात् पाक्षिक या विकल्प से प्राप्ति हो वहाँ नित्य प्राप्ति कराना या अन्य सामान्य सूत्र से होनेवाले विधिप्रदेश में से, कुछ मर्यादित प्रदेश में, उसकी प्राप्ति का पुनः कथन करके, उसी मर्यादित प्रदेश को छोड़कर अन्य शेष प्रदेश में उसी कार्य की अप्राप्ति कराना 'नियम' कहा जाता है । उदा. 'दण्डिन्' शब्द में ‘नि दीर्घः' १/४/८५ से होनेवाली दीर्घविधि का ही 'इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्यो: ' १/४/८७ से पुनः कथन करके नियमन किया है। यहाँ 'नि दीर्घ : ' १/४/८५ का विशाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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