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________________ ३४० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) धुवित्वा' आदि रूप सिद्ध होते है। इसी शंका का उत्तर देते हुए भाष्यकार ने कहा है कि 'कुटादित्व' के कारण प्रयुक्त आतिदेशिक 'ङित्त्व' द्वारा, औपदेशिक अर्थात् स्वाभाविक 'कित्त्व' की निवृत्ति संभव ही नहीं है । और 'क्त्वा' प्रत्यय में 'कित्त्व' रहता ही है अतः 'नूत्वा' धूत्वा' इत्यादि रूप भी इष्ट हैं । यहाँ 'ङित्त्व' द्वारा 'कित्त्व' का बाध इष्ट नहीं है, किन्तु येन नाऽ प्राप्ते-' न्यायमूलक ही बाध 'इष्ट है और जहाँ जहाँ 'ङित्त्व' हो वहाँ वहाँ सर्वत्र 'कित्त्व' की प्राप्ति नहीं होती है । उदा. 'नुवितुम्'। . यहाँ 'तुम' में 'कित्त्व' है ही नहीं । इस प्रकार पाणिनीय वैयाकरण ने इस न्याय का स्वीकार नहीं किया है ऐसा प्रतीत होता है । ___ अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में भी इस न्याय को स्थान नहीं दिया गया है । ॥१३०॥ परादन्तरङ्ग बलीय : ॥८॥ पर कार्य से अन्तरङ्ग कार्य बलवान् होता है । उदा. 'स्योमा' यहाँ 'सीव्यति' 'सिव्' धातु से 'मन-वन्-' ५/१/१४७ से 'मन्' प्रत्यय होने पर 'अनुनासिके च च्छ्वः शूट' ४/१/१०८ सूत्र, य्वोः प्व्यव्यञ्जने लुक्' ४/४/१२१ सूत्र से होनेवाले 'व' लोप का अपवाद है,अतः और ' लघोरुपान्त्यस्य' ४/३/४ सूत्र से होनेवाले गुण की अपेक्षा से 'ऊट' नित्य है, अतः 'व' लोप और गुण का बाध कर के 'ऊट' प्रथम होगा । अतः 'सि ऊ+मन्' होगा। इस परिस्थिति में उपान्त्य' 'इ' का गुण और 'य' दोनों होने की प्राप्ति है किन्तु गुण प्रत्ययनिमित्तक या बाह्यनिमित्तक है अतः वह बहिरङ्ग है, उसकी अपेक्षा से यत्वविधि अन्तरङ्ग है । अब गुण, 'य' आदेश की अपेक्षा से पर होने पर भी, इस न्याय से प्रथम 'इ' का 'य' होगा अत: 'स्य् + ऊ + मन्' होगा । बाद में 'ऊट' का 'नामिनो गुणोऽक्ङिति' ४/३/१ से गुण होगा और 'स्योमन्' शब्द की सिद्धि होकर प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'स्योमा' रूप होगा । इस न्याय के बारे में चर्चा करते हुए श्रीहेमहंसगणि ने कहा है कि यद्यपि 'परान्नित्यम्', 'नित्यादन्तरङ्गम्', इन दोनों न्यायों से ही इस न्याय का अर्थ प्राप्त ही है क्योंकि 'पर' कार्य से 'नित्य' कार्य बलवान् है और नित्य कार्य से अन्तरङ्ग कार्य बलवान् है , ऐसा कहने से ही पर कार्य से अन्तरङ्ग कार्य बलवान् है, ऐसा सिद्ध हो ही जाता है तथापि, ‘परान्नित्यम्' और 'नित्यादन्तरङ्गम्' न्याय की तरह बृहद्वृत्ति और बृहन्न्यास आदि में 'परादन्तरङ्गम्' न्याय का भी भिन्न भिन्न उदाहरणों में अवतार किया गया दिखायी पडता है, अतः यह न्याय बताया गया है। . शब्दमहार्णव (बृहन्) न्यास में 'लोकात्'१/१/३ सूत्र में 'स्योन' शब्द की सिद्धि करने में इस न्याय का उपयोग बताया है । 'परान्नित्यम्' और 'नित्यादन्तरङ्गम्' से ही पर कार्य से नित्य कार्य के बलवत्त्व का बोध हो जाता है, अतः अन्य किसी भी परम्परा में इस न्याय को बताया नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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