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________________ तृतीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १२९ ) ३३९ है और ' ङित्त्व', 'क्त्वा' प्रत्यय में ही धातु के कुटादित्व के कारण आता है किन्तु 'यप्' में नहीं आता है क्योंकि यप्, क्त्वा प्रत्यय का आदेश होने से इसमें प्रत्ययत्व नहीं है किन्तु प्रत्यय के स्थान में हुआ है अतः इसमें प्रत्ययत्व आ सकता है, अतः साक्षात् प्रत्ययत्वयुक्त 'क्त्वा' प्रत्यय में ही ' ङित्त्व' की प्रवृत्ति करनी चाहिए और 'यप्' में आया हुआ ' ङित्त्व' स्थानिधर्म स्वरूप है, जबकि पित्त्व 'यप्' का अपना धर्म है । अतः 'यप्' पर में आने पर पित्त्वनिमित्तक कार्य होता ही है । श्री लावण्यसूरिजी की यही बात उचित है । 'ङित्त्व' द्वारा 'कित्त्व' का बाध होता है, ऐसा न्याय में बताया है किन्तु 'ङित्त्व' द्वारा 'पित्त्व' का बाध नहीं होता है ऐसा कहकर 'प्रधुत्य' में पित्त्वनिमित्तक 'तू' का आगम हुआ है। श्रीहेमहंसगणि ने दिये हुए उदाहरण में 'पित्त्व' द्वारा 'कित्त्व' बाध नहीं होता है ऐसा बताया है । क्त्वा प्रत्यय का 'कित्त्व' 'यप्' में स्थानिधर्म के रूप में आता ही है तथापि 'यप्' के पित्त्व से कित्त्व का बाध होकर गुण की प्रवृत्ति नहीं होती है । ऊपर बताया उसी प्रकार पूर्वावस्था के अनुबन्धकत्व को स्थानिधर्म और उत्तरावस्था के अनुबन्धकत्व को स्वाभाविक धर्म मानने पर और उसी प्रकार से स्वाभाविक अनुबन्धकत्वनिमित्तक कार्य की ही प्राप्ति होती है ऐसा स्वीकार करने पर उपलक्षण से पूर्वावस्था के अनुबन्धकत्व का उत्तरावस्था के अनुबन्धकत्व द्वारा बाध होता है, ऐसे न्याय का स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रहती है । इस प्रकार 'चक्षू' के स्थान पर हुए 'रव्यांग क्शांग्' के अपने गित्त्वनिमित्तक कार्य होगा ही । तथा 'युतात्’आदि में भी अपने ङित्त्वनिमित्तक गुणाभाव होगा किन्तु 'तुव्' में स्थित वित्त्वनिमित्तक गुण नहीं होगा । किन्तु यह बात एक ही कार्य की प्राप्ति और निषेध की है किन्तु जब पूर्वावस्था के अनुबन्धनिमित्तककार्य और उत्तरावस्था के अनुबन्धनिमित्तककार्य भिन्न भिन्न विषयक हों तो, उसी अनुबन्ध में परस्पर बाध्यबाधकभाव नहीं रहता है उदा. 'प्रकृत्य' में क्त्वा के 'कित्त्व' से गुण नहीं होता है और 'यप्' के 'पित्त्व' से 'त्' का आगम भी होगा। का, पाणिनीय वैयाकरण तथा अन्य वैयाकरण, इस न्याय की स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु जहाँ पूर्वस्थित 'कित्त्व' ङित्व से बाध इष्ट है, वहाँ वे 'येन नाऽप्राप्ते-' न्याय से काम चलाते है । इस प्रकार 'नुवित:' इत्यादि प्रयोग में अवश्यप्राप्त 'कित्त्व' का, कुटादित्व के कारण प्रयुक्त ' ङित्त्व' से बाध होता है । - भाष्यकार ने 'कित्त्व' का 'ङित्त्व 'से बाध करना उचित नहीं माना है । भाष्यकार की चर्चा कासार इस प्रकार है यद्यपि 'कित्' और 'ङित्' दोनों प्रत्यय पर में आने पर गुणनिषेध होता है । इस दृष्टि से 'कित्त्व' और 'ङित्त्व' दोनों का कार्य समान ही है । वह किसी भी एक अनुबन्ध से सिद्ध हो सकता है । तथापि 'कित्' प्रत्यय पर में आने पर 'उवर्णात्' ४/४/५८ से 'इट्' निषेध होता है, वह ' ङित्' प्रत्यय पर में आने पर नहीं होता है, अतः दोनों का भिन्न-भिन्न कथन करना जरूरी है इस प्रकार दोनों अनुबन्धों का भिन्न भिन्न फल बताया, अतः किसी को शंका हो सकती . है कि क्वचित् ङित्त्व से कित्त्व का बाध होता है अतः इनिषेध नहीं होता है, इस प्रकार 'नुवित्वा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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