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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) होगा, ऐसा क्यों ? 'प्रकृत्य' यहाँ यप पित् है किन्तु वह जिसके स्थान पर हुआ है वह क्त्वा, कित है अर्थात् 'यप्' में कित्त्व भी आयेगा, इसका पित्त्व द्वारा बाध नहीं होगा, अतः 'कृ' के 'ऋ' का गुण नहीं होगा।
'ङित्त्व' द्वारा ही 'कित्त्व' का बाध होता है, ऐसा क्यों ? 'धुंत् गतिस्थैर्ययोः' धातु 'कुटादि' है। 'प्रध्रुत्य' में 'क्त्वा' प्रत्यय का 'यप' आदेश हुआ है । यहाँ 'यप्' में 'क्त्वा' का 'कित्त्व' भी आया है और धातु 'कुटादि' होने से 'कुटादेद्विदणित्' ४/३/१७ से 'ङित्त्व' भी आयेगा। यही 'ङित्त्व' यप् के 'कित्त्व' का ही बाध करेगा, अतः गुण नहीं होगा किन्तु 'यप्'के 'पित्त्व' का बाध नहीं करेगा । अतः 'हस्वस्य तः पित्कृति' ४/४/११३ से 'त्' का आगम होगा ही।
यह न्याय अनित्य है, अतः क्वचित् 'ङित्त्व ' से 'कित्त्व' का बाध नहीं होता है, अतः 'प्रणूतवान्' प्रयोग भी होता है अर्थात् कित्त्वनिमित्तक, इट् निषेध हो ही जाता है।
यहाँ 'ङित्त्वेन कित्त्वं' उपलक्षण है, अतः अन्यत्र भी धातु आदि की पूर्वावस्था के अनुबन्ध का उत्तरावस्था के अनुबन्ध द्वारा बाध होता है । वह धातु सम्बन्धित इस प्रकार है-'चक्षि' धातु के आदेश-स्वरूप 'क्शांग्' और 'ख्यांग' के 'गित्त्व' द्वारा पूर्वावस्था के 'इदित्त्व' का बाध होता है। धातु का आदेश धातु जैसा ही माना जाता है, अतः ‘क्शांग्' और 'ख्यांग्' में 'इदित्त्व' आता होने से नित्य आत्मनेपद होने की प्राप्ति है, तथापि ‘गित्त्व' से 'इदित्त्व' का बाध हुआ है, अतः नित्य आत्मनेपद की निवृत्ति होकर, धातु उभयपदी हो जायेगा, और 'आचख्यौ आचरव्ये' इत्यादि रूप होंगे।
प्रत्यय सम्बन्धित इस प्रकार है-उदा. 'युतात्' । यहाँ 'तुव्' प्रत्यय 'वित्' है । जब इसका आदेश 'तातङ्', 'ङित्' है । वही 'ङित्त्व' से 'वित्त्व' का बाध होगा। अतः 'उत और्विति व्यञ्जने ऽद्वेः' ४/३/५९ से 'औ' नहीं होगा । क्वचित् बाध नहीं होता है। उदा. 'प्रकृत्य', यहाँ 'यप्' के पित्त्व द्वारा, 'क्त्वा' के कित्त्व का बाध नहीं होता है, अत: गुण नहीं हुआ है । यदि बाध होता तो गुण हो ही जाता।
जब एक ही प्रत्यय में 'कित्त्व' और 'ङित्त्व' स्वरूप दो धर्म प्राप्त हों और दोनों सम्बन्धित परस्पर विरुद्ध कार्य की प्राप्ति हो तो ङित्त्वनिमितक कार्य किया जाय या कित्त्वनिमित्तक कार्य किया जाय ? ऐसा संदेह होता है। उसी संदेह को दूर करने के लिए यह न्याय है अर्थात् जहाँ 'कित्त्व' पूर्वव्यवस्थित हो या स्वाभाविक हो और 'ङित्त्व' बाद में किसी भी सूत्र द्वारा आया हो, वहाँ ङित्त्वनिमित्तक ही कार्य होता है। 'ङित्त्व' और 'कित्त्व' में अपने में बाध्यबाधकभाव नहीं है, किन्तु उनके कार्य में परस्पर बाध्यबाधकभाव है अतः ङित्त्वनिमित्तक कार्य से कित्त्वनिमित्तककार्य का बाध होता है, ऐसा समझना ।
'यप्' के 'पित्त्व' के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'यप्' के 'पित्त्व' का 'ङित्त्व' से बाध होता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि 'ङित्त्व' की अपेक्षासे 'पित्त्व' स्वाभाविक
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