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तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२९)
३३७ है, वह उचित नहीं है । 'सि' लोप करने के बाद 'साहं' रूप होगा तब यहाँ स्त्रीलिंग या पुलिंग का संदेह होता है, वह दूसरा दूषण है, अत एव 'सि' का लोप न करना चाहिए ।
वस्तुतः यह न्याय 'तक्रकौण्डिन्य' न्याय का ही प्रपंच है । 'तक्रं देयमस्मै स तक्रदेयः, स चासौ कौण्डिन्यश्च तक्रकौण्डिन्यः' यहाँ 'मयूरव्यंसकादित्व' से 'देय' शब्द का लोप हुआ है । यह न्याय इस प्रकार है । जैसे 'द्विजेभ्यो दधि देयम्' (ब्राह्मण को दधि देना ) कहकर कौण्डिन्याय तक्रं देयं' (कौण्डिन्य को छाश देना) कहा हो तो कौण्डिन्य को दधि देने का साक्षात् शब्द द्वारा निषेध नहीं है तथापि निषेध की प्रतीति होती है। इस प्रकार विशेष लक्षण स्वरूप विधि द्वारा पूर्वोक्त सामान्य लक्षण स्वरूप विधि का बाध, शब्द से कहा नहीं है, तथापि हो ही जाता है। उदा. 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद भृशाभीक्ष्ण्ये यङ्वा' ३/४/९ सूत्र से सामान्यतया 'भृशाभीक्ष्ण्य' अर्थ में 'यङ्' का विधान करके, पुनः 'गत्यर्थात्कुटिले' ३/४/११ से विशेष विधि कही है अतः गति अर्थवाचक धातु से भृशाभीक्ष्ण्य अर्थ में 'यङ्' का निषेध अनुक्त होने पर भी गम्यमान है । उसी प्रकार यहाँ भी विशेषविधि द्वारा सामान्यविधि का बाध होता है, इतना ही सूचित हुआ है।
श्रीहेमहंसगणि की 'तार्किकाणां मते सामान्यविशेषयोर्बाध्यबाधकभावो नास्ति' उक्ति को अप्रासंगिकी बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि तर्क इत्यादि शास्त्र में प्रमाण-प्रमेय के बारे में विचार किया गया होने से, विधि-निषेध का अभाव होता है । जबकि यह बाध्य-बाधकभाव विधि-निषेध सम्बन्धित है अतः विधि-निषेध जिस में आता है वैसे धर्मशास्त्र- व्याकरणशास्त्र आदि में इस न्याय की प्रवृत्ति होती है । व्याकरण में सामान्यशास्त्र, विधिशास्त्रपरक माना जाता है/होता है और विशेषशास्त्र प्रायः निषेधपरक होता है।
यह न्याय अनवकाशमूलक ही है और 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः' न्याय में ही इस न्याय का समावेश हो जाता है, अतः इसको भिन्न न्याय के स्वरूप में नहीं मानना चाहिए। अपवाद के स्थान पर भी सामान्य-विशेषभाव प्रयुक्त ही बाध्य-बाधकभाव होता है।
इस न्याय का कहीं कहीं 'उत्सर्गादपवादः' न्याय में समावेश किया है क्योंकि उत्सर्ग सामान्य विधि है और अपवाद विशेष विधि है।
॥१२९॥ ङित्त्वेन कित्त्वं बाध्यते ॥७॥ 'ङित्त्व' द्वारा ‘कित्त्व' का बाध होता है । यह न्याय 'बलाबलोक्ति' न्याय है । इस प्रकार अगला न्याय भी 'बलाबलोक्ति' न्याय है।
उदा. 'णूत् स्तवने' धातु 'कुटादि' है । 'नुवितः, प्रणुवितः ।' यहाँ 'उवर्णात्' ४/४/५८ से 'कित्' प्रत्यय के आदि में होनेवाले 'इट्' का निषेध नहीं हुआ है । यह 'णूत्' धातु 'कुटादि' होने से 'कुटादेर्डिद्वदणित्' ४/३/१७ से 'क्त' में 'ङित्त्व' आयेगा और वही 'ङित्त्व', 'कित्त्व' का बाध करेगा, अतः कित्प्रत्यय निमित्तक, इट् निषेध नहीं होगा । 'ङित्त्व' द्वारा ही 'कित्त्व' का बाध
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