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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११०) ३०७ नहीं होती है तथापि नाम (प्रातिपदिक) से पूर्व आये हुए 'उपसर्ग' ऐसा जहाँ कहा हो वहाँ 'उपसर्ग' शब्द से प्रादि का ग्रहण होता है ऐसा, उसके वार्त्तिक से ज्ञात होता है और 'उपसर्गादध्वनः' ७/३/ ७९ जैसी विधि को अनवकाश विधि बताकर, वचनप्रमाण से ही सिद्ध हुई मानी गई है, ऐसा भाष्यकार ने उन्हीं वार्तिकों की व्याख्या करते हुए कहा है। यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में नहीं हैं। ॥११०॥ शीलादिप्रत्ययेषु नासरूपोत्सर्गविधिः ॥५३॥ शीलादि प्रत्यय में असरूपोत्सर्गविधि नहीं होती है। 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्तेः' ५/१/१६ सूत्र से अपवाद के विषय में औत्सर्गिक प्रत्यय की प्रवृत्ति की विकल्प से अनुज्ञा दी गई है, यदि वह प्रत्यय अपवादस्वरूप प्रत्यय के साथ समान रूपवाला न हो तो । यह सूत्र शील, धर्म और साधु अर्थ में विहित प्रत्यय को लागु नहीं पड़ता है, ऐसा यह न्याय कहता है अर्थात् उपर्युक्त तीनों अर्थ में होनेवाले प्रत्यय के विषय में, अपवाद स्वरूप प्रत्यय के साथ समान रूपवाला न हो ऐसा औत्सर्गिक प्रत्यय भी 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक क्तेः' ५/१/१६ सूत्र से नहीं होता है। उदा. 'अलङ्करिष्णुः कन्याम्' इत्यादि प्रयोग में 'भ्राज्यलकृग निराकृग्भूसहिरुचिवृतिवृधिचरिप्रजनापत्रप इष्णु :' ५/२/२८ से 'इष्णु' प्रत्यय ही होगा किन्तु 'तृन् शीलधर्मसाधुषु' ५/२/२७ से होनेवाला तृन् प्रत्यय नहीं होगा । अतः 'अलङ्कर्ता कन्याम्' प्रयोग नहीं हो सकता है । यहाँ 'तृन् शीलधर्मसाधुषु' ५/२/२७ से होनेवाला तृन् प्रत्यय औत्सर्गिक है, जबकि 'भ्राज्यलकृगनिराकृग्-'५/२/२८ से होनेवाला 'इष्णु' प्रत्यय अपवाद है और उसके साथ औत्सर्गिक तृन् प्रत्यय का स्वरूप समान नहीं है । उसी कारण से 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से विकल्प से तृन् प्रत्यय होने की प्राप्ति है किन्तु यह न्याय उसका निषेध करता है। 'भूषाक्रोधार्थजुसृगृधिज्वलशुचश्चानः' ५/२/४२ सूत्र में 'च' से 'पद्' धातु का अनुकर्षण इस न्याय का ज्ञापक है । यह सूत्र 'पद्' थातु से 'अन' प्रत्यय करता है, किन्तु वही 'अन' प्रत्यय, 'पद्' धातु इदित् होने से 'इङिन्तो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ५/२/४४ से होनेवाला ही है तथापि यहाँ 'च' से उसका अनुकर्षण किया, उससे ज्ञापित होता है कि शीलादिप्रत्यय में असरूपविधि नहीं होती है। वह इस प्रकार -: यहाँ 'लषपतपदः' ५/२/४१ से होनेवाले उकण् प्रत्यय से 'अन' का बाध होनेवाला है किन्तु 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से उत्सर्ग 'अन' प्रत्यय की अनुज्ञा दी गई है, अतः 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ५/२/४४ से 'अन' हो सकता है और उसके बाध का कोई संभव नहीं है तथापि 'च' से 'पद्' धातु का अनुकर्षण करके 'अन' प्रत्यय किया वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है। यह न्याय अनित्य है । अतः शीलादि अर्थ में 'शृकमगमहनवृषभूस्थ उकण' ५/२/४० से 'उकण्' प्रत्यय होकर आगामुकः' होता है वैसे उसी अर्थ में उत्सर्ग 'तॄन् शील-'५/२/२७ से 'तृन्' १. 'न्यायसंग्रह' के मूल पाठ में 'शीलादिप्रत्ययेषु' स्वरूप सामासिक पद है, जबकि श्रीलावण्यसूरिजी के 'न्याय-समुच्चय' में 'शीलादिषु प्रत्ययेषु' पाठ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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