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________________ ३०८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) प्रत्यय भी होकर 'आगन्ता' रूप होगा । इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'न णिङ्यसूददीपदीक्षः' ५/२/४५ सूत्रगत 'दीप' धातु है। यदि यह न्याय नित्य ही होता तो, अपवादस्वरूप 'स्म्यजसहिंसदीपकम्पकमनमो रः' ५/२/७९ से होनेवाले 'र' के विधान से ही शीलादि अर्थ में 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ५/२/४४ से होनेवाले औत्सर्गिक 'अन' प्रत्यय का बाध हो जाता है । अतः उसके लिए 'न णि ङ्यसू-' ५/२/४५ सूत्र में 'दीप' का ग्रहण करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । यहाँ ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से औत्सर्गिक अन प्रत्यय होने की संभावना है, उसका निषेध करने के लिए 'न णिङ्यसू-' ५/२/४५ में दीप का ग्रहण किया है क्योंकि यही न्याय ही उसका (असरूपविधि का) निषेध करता है। अतः इस न्याय की अनित्यता के कारण ही 'शीलादि' प्रत्यय में क्वचित् असरूपविधि हो जाती है, अतः 'स्यजसहिंस-'५/२/७९ से होनेवाले 'र' के विषय में औत्सर्गिक 'अन' प्रत्यय न हो, उसके लिए 'न णिङ्यसूद-'५/२/४५ में 'दीप' का ग्रहण किया है। यह न्याय केवल शीलादि अर्थ में होनेवाले प्रत्यय में ही परस्पर असरूपविधि का निषेध नहीं करता है, किन्तु शीलादि अर्थ में हुए अपवादस्वरूप प्रत्यय का, अन्य सामान्य (शीलादि प्रत्यय से भिन्न) औत्सर्गिक प्रत्यय के साथ, उसकी असरूपविधि का निषेध करता है । उसका ज्ञापन करने के लिए श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय का दसरा अर्थ इस प्रकार कहा है। जहाँ शीलादि प्रत्यय होता है, वहाँ सामान्यतया कर्ता इत्यादि अर्थ में होनेवाले औत्सर्गिक कृत्प्रत्यय, असरूपविधि से प्राप्त होने पर भी नहीं होते हैं । अतः 'अलङ्करिष्णुः' इत्यादि प्रयोग में शीलादि अर्थ में 'भ्राज्यलकृग्'- ५/२/२८ से 'इष्णु' प्रत्यय के साथ सामान्यतया कर्ता अर्थ में ‘णकतृचौ' ५/१/४८ से होनेवाला 'णक' प्रत्यय नहीं होगा। अतः शीलादि अर्थ में 'अलङ्कारकः' प्रयोग नहीं हो सकता है। इस अर्थ का ज्ञापन 'शीलादि' अर्थ में 'परिवादकः' रूप की सिद्धि करने के लिए 'वादेश्च णकः' ५/२/६७ से 'णकः' का विशेष विधान किया, उससे होता है । वह इस प्रकार है -: 'परिवादकः' में सामान्य अर्थ में विहित ‘णकतचौ' ५/१/४८ से 'णक' सिद्ध ही था । तथापि 'वादेश्च णकः' ५/२/६७ से शीलादि अर्थ में विशेष विधान किया । यदि शीलादि अर्थ में होनेवाले 'तृन्' आदि प्रत्यय के विषय में, सामान्य अर्थ में विहित 'णक' प्रत्यय (णकतचौ ५/१/४८) 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से होनेवाली असरूपविधि से होता तो, ‘णक' प्रत्यय के लिए 'वादेश्च णकः' ५/२/६७ सूत्र क्यों किया जाय ? अर्थात् न किया जाय, तथापि सूत्ररचना की, उससे ज्ञात होता है कि 'णकतृचौ' ५/१/४८ से सामान्य कर्ता इत्यादि अर्थ में होनेवाले ‘णक' प्रत्यय के साथ होनेवाली 'असरूपविधि' का भी यह न्याय निषेध करता है । अतः ‘णकतृचौ' ५/१/४८ से 'परिवादकः' में शीलादि अर्थ में 'णक' प्रत्यय नहीं होगा । अत: उसका विशेष विधान करना आवश्यक है। किन्तु इस न्याय का यही अर्थ अनित्य होने से क्वचित् शीलादि अर्थ में, सामान्य अर्थ में विहित औत्सर्गिक कृत्प्रत्यय भी होता है । उदा. 'कामक्रोधौ मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव' । यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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