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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९६) २७५ बिना भी उपान्त्य 'आ' का ह्रस्व निषेध हो ही जाता है तथापि सूत्र में 'असमानलोपि' रखा, वह 'अन्' के स्थानिवद्भाव के अनित्यत्व के कारण रखा है । अतः जब स्थानिवद्भाव नहीं होगा तब वही 'राज' के उपान्त्य 'आ' के ह्रस्व होने की संभावना पैदा होती है, उसका 'असमानलोपि' से निषेध हो जाता है। पुंवद्भाव की अनित्यता इस प्रकार है-'दक्षिणस्यां भवो दाक्षिणात्यः' यहाँ 'दक्षिणा' शब्द दिग्वाचि होने से स्त्रीलिङ्ग है । सप्तम्यन्त 'दक्षिणा' शब्द से 'भव' अर्थ में 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण' ६/३/१३ से 'त्यण' प्रत्यय होगा । यहाँ 'सर्वादयोऽस्यादौ' ३/२/६१ से 'दक्षिणा' का पुंवद्भाव होने पर स्त्रीत्व निवृत्त होगा। अत: 'निमित्ताभावे-'न्याय से स्त्रीत्व निमित्तक 'आप' की निवृत्ति होकर 'दाक्षिणत्यः' होने की प्राप्ति है तथापि पुंवद्भाव अनित्य होने से 'दाक्षिणत्यः' के स्थान में 'दाक्षिणात्यः' रूप होगा। पुंवद्भाव की अनित्यता का ज्ञापन 'कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती च' ६/१/१२७ सूत्र के 'कौण्डिन्य' शब्द से होता है। यही 'कौण्डिन्य' शब्द का निर्देश पुंवद्भाव की अनित्यता के बिना किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है । 'कुडुङ् दाहे' धातु से 'अजातेः शीले' ५/१/१५४ से 'णिन्' प्रत्यय होगा उसे स्त्रीलिङ्ग में 'की' प्रत्यय होने पर 'कुण्डिनी' शब्द होगा, बाद में वृद्धापत्य अर्थ में 'गर्गादे:'-६/१/४२ से 'यञ्' प्रत्यय करने पर, यदि 'जातिश्च णितद्धितयस्वरे' ३/२/५१ से पुंवद्भाव होता तो स्त्रीत्व-निवृत्ति के साथ तन्निमित्तक 'डी' की भी निवृत्ति होती और कौण्डिन् + यञ्' होता, और 'नोऽपदस्य'-७/४/६१ से 'इन्' का लोप होता और कौण्ड्य' शब्द बनता किन्तु 'कौण्डिन्य' न होता, तथापि 'कौण्डिन्य' निर्देश किया है, वह पुंवद्भाव की अनित्यता बताता है। और पुंवद्भाव न होने पर 'कौण्डिनी + यञ्' में 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ से 'ई' का लोप हुआ है, तथापि, वही 'ई' लोप को स्वरादेश मानकर उसका स्थानिवद्भाब करने पर 'नोऽपदस्य'-७/४/ ६१ से प्राप्त ‘इन्' का लोप नहीं होगा और 'कौण्डिन्य' रूप सिद्ध होगा। 'एकशेष' की अनित्यता इस प्रकार है । 'तदतदात्मकं तत्त्वमातिष्ठन्ते जैनाः ।' यहाँ 'त्यदादिः' ३/१/१२० से 'तद्' शब्द का 'एकशेष' होने की प्राप्ति है तथापि नहीं किया है । एकशेष की अनित्यता के ज्ञापक ऐसे प्रयोग ही हैं । 'तदतदात्मकं' पद की स्पष्टता करते हुए श्रीहेमहंसगणि इस न्याय के न्यास में कहते हैं कि 'त्यदादिः' ३/१/१२० सूत्र का अर्थ इस प्रकार है । जब 'त्यदादि' शब्दों का अन्य शब्दों के साथ द्वन्द्व समास होता है तब, 'त्यदादि' शब्द ही शेष रहता है और अन्य शब्दों का लोप होता है। उदाः 'स च चैत्रश्च तौ, यश्च चैत्रश्च यौ' । उसी प्रकार यहाँ भी 'तदतदात्मकं' में तच्च अतच्च' में 'तद्'-त्यदादि है और 'अतद्' अन्य शब्द है, अतः इन दोनों में से 'अतद्' का लोप होकर 'ते' होने की प्राप्ति है तथापि यहाँ 'तदते' किया है, बाद 'तदते आत्मा यस्य तद तदतदात्मकं', इस प्रकार बहुव्रीहि समास किया है। यहाँ 'आतिष्ठन्ते' में 'प्रतिज्ञायाम्' ३/३/६५ से आत्मनेपद किया है। 'तद्' शब्द सर्वनाम होने से, उसके द्वारा 'नित्यत्वं, सामान्यात्मकत्वं, अभिलाप्यत्वं' इत्यादि गुण लिये जाते हैं अर्थात् जैन, प्रत्येक चीज में सत्त्व, नित्यत्व इत्यादि गुणधर्म में स्याद्वाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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