SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) या अनेकांतवाद मानते हैं । अर्थात् कोई भी चीज एकान्त से नित्य भी नहीं और अनित्य भी नहीं है किन्तु कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य या नित्यानित्य है। इस प्रकार पदार्थ के प्रत्येक गुण के लिए समझ लेना । द्वन्द्वैकत्व (समाहारद्वन्द्व) की अनित्यता इस प्रकार है । 'शङ्खश्च दुन्दुभिश्च वीणा च शङ्खदुन्दुभिवीणाः ।' यहाँ 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ से प्राप्त समाहारद्वन्द्व नहीं हुआ है । द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता का ज्ञापक 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ सूत्रगत बहुवचन है । यद्यपि आचार्यश्री ने सर्वत्र एकवचन का ही प्रयोग किया है और जहाँ जहाँ बहुवचन का प्रयोग किया है वहाँ वहाँ किसी न किसी विशेष विधान का ज्ञापन करने के लिए वह है । यहाँ भी समाहारद्वन्द्व करके एकवचन का प्रयोग हो सकता है, तथापि बहुवचन का प्रयोग किया, उससे ज्ञापन होता है कि यहाँ कोई विशेष प्रयोजन है ही और समाहारद्वन्द्व की अनित्यता के ज्ञापन को छोड़कर अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। अतः इसी 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ सूत्रगत बहुवचन द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता का ज्ञापक है। यदि यह न्यायांश न होता तो यहाँ बहुवचन का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता न थी। दीर्घविधि में अनित्यता इस प्रकार है । उदा. 'कुर्दि क्रीडायाम्' 'कुर्दते' में 'रम्यादिभ्यः कर्तरि' ५/३/१२६ से 'अन' प्रत्यय होने पर 'कुर्दनः' और 'गुर्वै उद्यमे' से 'णिन् चावश्यकाधमर्ये' ५/ ४/३६ से 'णिन्' प्रत्यय होकर, उससे स्त्रीलिङ्ग में 'ङी' प्रत्यय होने पर 'गुर्विणी' इत्यादि प्रयोग में 'भ्वादेर्नामिनो'-२/१/६३ से दीर्घ नहीं हुआ है । 'भ्वादेर्नामिनो-' २/१/६३ से दीर्घत्व की सिद्धि होती है, तथापि 'स्फूर्ख, ऊ, ऊर्गु' इत्यादि धातु में धातुपाठ में ही दीर्घपाठ किया है, वह दीर्घविधि की अनित्यता का ज्ञापक है। यदि 'हुर्छा, मुर्छा,' इत्यादि धातुओं की तरह इस्व धातुपाठ किया होता तो चलता, किन्तु, तथापि दीर्घपाठ किया वह दीर्घत्व की अनित्यता के ज्ञापन के लिए ही है। यदि यह न्यायांश न होता तो आचार्यश्री कौन से अर्थ के ज्ञापन के लिए दीर्घपाठ करते ? यह न्याय कुछेक विधि की अनित्यता बताता है । अतः स्वभाव से ही वह अनित्य होने से, उसकी अनित्यता का संभव ही नहीं है। स्थानिवद्भाव की अनित्यता सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में 'उपान्त्यस्या'-४/२/३५ सूत्र की व्याख्या में बतायी गई है। इसके उदाहरण 'असिस्वदत्' और 'पर्यवीवसत्' की चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी शंका करते हैं की यहाँ 'णिच्' पर में होने पर 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ से वृद्धि होने से पूर्व ही 'उ' इत्यादि का लोप क्यों नहीं होगा ? किन्तु यही चर्चा पूर्व के प्रथम विभाग के ५७ न्याय में आये हुए ‘बलवन्नित्यमनित्यात्' ॥४१॥ न्याय में आ गई है । अतः यहाँ इसकी पुनरुक्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पाणिनीय परम्परा में स्थानिवद्भाव की अनित्यता का कोई बलवान् ज्ञापक नहीं मिलता है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी बताते हैं और उसी कारण से 'असिस्वदद्' इत्यादि प्रयोग में उपान्त्य का हुस्व करने के लिए स्थानिवद्भाव न करना चाहिए और उसके लिए 'आतिदेशिकमनित्यम्' स्वरूप सर्वसामान्य न्याय का आश्रय करना चाहिए । तथापि सिद्धहेम की परम्परा में इस न्यायांश की प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy