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________________ २७४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥९६॥ स्थानिवद्भाव-पुंवद्भावैकशेष-द्वन्द्वैकत्व-दीर्घत्वान्यनित्यानि ॥३९॥ स्थानिवद्भाव, पुंवद्भाव, एकशेष, द्वन्द्वैकत्व और दीर्घत्व, ये पाँच कार्य अनित्य हैं। यहाँ 'द्वन्द्वैकत्व' अर्थात् 'समाहार द्वन्द्व' और 'दीर्घत्व' सामान्य से कहा है तथापि भ्वादेर्नामिनो'२/१/६३ से होनेवाली दीर्घविधि यहाँ लेना । स्थानिवद्भाव इत्यादि पाँच कार्य अनित्य हैं अर्थात् यथाप्राप्त सर्वत्र होते ही हैं किन्तु शिष्ट प्रयोगानुसार क्वचित् नहीं होते हैं । स्थानिवद्भाव इत्यादि जहाँ होते हैं, वैसे उदाहरण सुलभ होने से कहे नहीं हैं । स्थानिवद्भावाभाव का उदाहरण इस प्रकार है। 'स्वादु' शब्द से 'स्वाद्वकार्षीत्' अर्थ में णिच् होकर अद्यतनी में 'असिस्वदद्' प्रयोग होगा। यहाँ 'स्वादु' शब्द के उकार की 'णिच्' पर में होने से वृद्धि होने पर 'स्वादाव् + णिच्' होगा और 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से अन्त्यस्वरादि 'आव्' का लोप होगा । 'अ+स्वाद्+णिच्+ङ+दि', इसी स्थिति में णिच् निमित्तक 'आव्' लोप हुआ है, इसका स्थानिवद्भाव न होने पर 'स्वाद्' का 'आ' उपान्त्य बनेगा और उसका 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'-४/२/३५ से ह्रस्व होगा। स्थानिवद्भाव के अनित्यत्व का ज्ञापक 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'-४/२/३५ सूत्रगत 'असमानलोपि' शब्द है। वह इस प्रकार है। 'मालामाख्यत अममालत' इत्यादि प्रयोग में 'णिच' के कारण अन्त्य 'आ' का लोप हुआ है और उसके उपान्त्य 'आ' का हुस्व करते समय स्थानिवद्भाव होगा, इस प्रकार 'उपान्त्यस्या'-४/२/३५ से ह्रस्व होने की प्राप्ति ही नहीं है तो उसका निषेध करने के लिए सूत्र में 'असमानलोपि' कहने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् यही 'असमानलोपि' शब्द व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि स्थानिवद्भाव अनित्य होने से, जब स्थानिवद्भाव न हो तो 'अममालद्' में माला के अन्त्य आ का लोप होने के बाद, उपान्त्य आ का इस्व हो ही जाता है, उसका निषेध करने के लिए 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'-४/२/३५ सूत्र में 'असमानलोपि' कहना आवश्यक है। ___यहाँ किसी को शंका होती है कि 'असमानलोपि' कहने का कारण दूसरा भी है । वह इस प्रकार है-: 'राजानमाख्यद् अरराजत्' प्रयोग में 'णिच्' पर में होने पर त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से अन्त्यस्वरादि 'अन्' का लोप होता है । यही 'अन्' लोप स्वरव्यंजनसमुदाय का आदेश है, अत: उसमें स्वरादेशत्व नहीं है उसी कारण से 'स्वरस्य परे प्राविधौ' ७/४/११० से स्थानिवद्भाव की प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'राज' का आ उपान्त्य होगा और 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'-४/२/३५ से हुस्व होने की आपत्ति आयेगी किन्तु यहाँ भी ह्रस्व निषेध हुआ प्रतीत होता है और उसके लिए ही 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'-४/२/३५ में 'असमानलोपि' शब्द रखा है । यही शंका उचित है किन्तु 'अरराजद्' इत्यादि प्रयोग में 'अन्' लोप स्वरूप जो स्वरव्यंजनसमुदायलोप स्वरूप आदेश है, उसमें स्वर के प्राधान्य की विवक्षा करने पर उसमें स्वरादेशत्व का संभव है ही, और तो 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' ७/४/११० से स्थानिवद्भाव हो जाता है। इस प्रकार 'असमानलोपि' शब्द के ग्रहण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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