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________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) उसमें व्याकरणशास्त्र से प्राप्त आत्मनेपद का अभाव इस प्रकार है । 'डुलभिष् प्राप्तौ, क्लीबृड् आधा, क्लिशिंच् उपतापे षेवृङ् सेवने, भाषि व्यक्तायां वाचि, तर्जिण् संतर्जने, भसिण् संतर्जने, शमिण् आलोपने, भलिण् आभण्डने कुत्सिण् अवक्षेपे, वञ्चिण् प्रलम्भने, विदिण् चेतनाख्याननिवासेषु', ये सब धातु इङित् होने से आत्मनेपद की ही प्राप्ति है तथापि उसका अनुक्रम से निम्नोक्त प्रकार से प्रयोग होता है । '१. सम्यक् प्रणम्य न 'लभन्ति' कदाचनाऽपि । २. कुरूद्योतं 'क्लीबद्' दिनपतिसुधागौ तमसि मे । ३. परार्थे 'क्लिश्यतः ' सतः । ४. स्वाधीने विभवेऽप्यहो नरपति 'सेवन्ति' किं मानिनः ५. मिथ्या न ' भाषामि' विशालनेत्रे ६. 'तर्जयति' ७. ' भर्त्सयति' ८. 'निशामयति' ९. 'निभालयति' १०. 'कुत्सयति' ११. 'वञ्चयति' १२. 'वेदयति' इत्यादि । यहाँ 'क्लीबद्' प्रयोग में 'क्लीबृङ् ' धातु तथा 'क्लीब' शब्द से 'कर्तुः क्विप्'.... ३/४/२५ से होनेवाले ङित् 'क्विप्' प्रत्ययान्त नामधातु भी लिया जा सकता है । २७० 7 आत्मनेपद की प्राप्ति न हो तथापि होता है । उदा. 'षस्ज गतौ, 'प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ' [ भगवद्गीता ] 'सज्जमानमकार्येषु' । यह धातु इङित् नहीं होने पर भी आत्मनेपद होता है। 'एजृङ्, भेजृङ्, भ्राजि दीप्तौ' इस प्रकार भ्राज् धातु का आत्मनेपदी धातु में पाठ किया है तथापि 'राजृग् टुभ्राजि दीप्तौ,' ऐसे पुनः पाठ किया वह इस न्याय का ज्ञापक है । इसका ज्ञापकत्व इस प्रकार है । ' भ्राजि' धातु का आत्मनेपदी धातु में दो बार पाठ करके 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' न्याय से, 'भ्राजि' धातु से कदापि परस्मैपद नहीं होगा, ऐसा सिद्ध किया है । 'भ्राजि' धातु से आत्मनेपद ही होगा, ऐसा ज्ञापित करने के लिए, ऐसा प्रयत्न किया क्योंकि 'भ्राजि' धातु के आत्मनेपद के व्यभिचार की शंका उत्पन्न हुई होगी और वह इस न्याय के बिना नहीं हो सकती है । यदि यह न्याय न होता तो 'भ्राजि' धातु का दो बार पाठ करने की कोई आवश्यकता ही न थी । अतः वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है। और यह न्याय होने के कारण ही, 'भ्राजि' धातु के आत्मनेपद के व्यभिचार की शंका हुई, उसे दूर करने के लिए, दो बार पाठ किया अर्थात् वह सार्थक भी है। यह न्याय अनित्य है क्योंकि 'इङितः कर्तरि ३/३/२२ से होनेवाली आत्मनेपदविधि ही इसका क्षेत्र है । इसे छोड़कर 'क्रियाव्यतिहारेऽगतिहिंसा'-३/३/२३ इत्यादि सूत्र से होनेवाली आत्मनेपदविधि नित्य ही है अनित्य नहीं है, क्योंकि न्याय की अपेक्षा सूत्र बलवान् माने जाते हैं । तथा 'इङितः कर्तरि' ३/३/ २२ सूत्र में लिङ्ग (चिह्न) द्वारा आत्मनेपद किया है । अतः वह लाक्षणिक है। जबकि अन्यसूत्र द्वारा उक्त आत्मनेपदविधि प्रतिपदोक्त है। अतः 'लक्षणप्रतिपदोक्तयो:'न्याय से 'क्रियाव्यतिहारेऽगति - ' ३/३/२३ इत्यादि सूत्रोक्त आत्मनेपदविधि में किसी भी प्रकार के व्यभिचार का संभव नहीं है । इस न्याय की क्या आवश्यकता है ? इसके बारे में विचार करने पर लगता है कि सिद्धहेम में परस्मैपद के लिए 'शेषात्परस्मै' ३/३/१०० सूत्र है, अर्थात् वही सामान्य विधान है। जबकि आत्मनेपद, उसी उसी लिङ्गविशेष निमित्तक है, अतः वह बलवान् बनता है और आत्मनेपद विधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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