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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ९४ )
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ऐसा मानना और क्वचित् इस न्याय की आवश्यकता दिखायी दे तो लोकसिद्ध मानकर उसका आश्रय करना चाहिए ।
श्री लावण्यसूरिजी इस न्याय के फल और ज्ञापक की चर्चा करते हुए फल को ज्ञापक और ज्ञापक में फल बताते हैं । इसके लिए उन्होंने बृहद्वृत्ति और लघुन्यास का आधार लिया है ।
श्रीमहंसगणि ने 'आस्थद्' में 'अङ्' के व्यभिचार का अभाव बताया है किन्तु वह 'शास्त्यसूवक्तिख्यातेरङ्- ' ३/४ / ६० की बृहद्वृत्ति के अनुकूल प्रतीत नहीं होता है क्योंकि बृहद्वृत्ति में कहा है कि 'अस्' धातु पुष्यादि होने से 'अङ्- ' होनेवाला ही था, तथापि आत्मनेपद में अ करने के लिए, यहाँ 'अस्' का ग्रहण किया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पुष्यादित्व से होनेवाला 'अङ्ग ' परस्मैपद में ही होता है, जबकि इसी सूत्र से होनेवाला 'अङ्- ' परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों में होता है | अतः 'पर्यस्थत' प्रयोग के लिए यहाँ 'अस्' का ग्रहण किया है ।
लघुन्यासकार ने पुष्यादि पाठ को ज्ञापक बताते हुए कहा है कि 'आत्मनेपदार्थम् इति' ऐसे बृहद्वृत्ति के शब्द से आत्मनेपद और परस्मैपद दोनों में इसी सूत्र से ही 'अङ् ' होनेवाला है, तो पुष्यादि पाठ में इसका निर्देश क्योंकिया ? वह व्यर्थ होकर इस न्याय का जापन करता है, अतः 'अस्' धातु से 'अ ' होगा ही । जबकि अन्य पुष्यादि धातु से 'अङ् ' न भी हा सकता है अर्थात् उसमें अङ् का व्यभिचार देखने को मिलता है । अत एव 'भगवन् ! मा कोपी:' इत्यादि ( रामायणोक्त ) प्रयोग की सिद्धि हो सकती है ।
यदि इस प्रकार 'पुष्यादि' पाठ ज्ञापक होता तो 'दश' (४/१/५२ ) निर्देश इस न्याय का उदाहरण बनता है ।
ऐसा होने पर भी कुछेक कहते हैं कि 'दिवादि' में 'अस्' धातु का पाठ 'श्य' (विकरण) प्रत्यय करने के लिए ही किया है और 'अङ्' प्रत्यय 'पुष्यादि' से ही होनेवाला होने से 'पुष्यादि' में ही उसका पाठ किया है । बाद में आत्मनेपद में 'अ ' करने के लिए 'शास्त्यसूवक्ति'-३/४/ ६० सूत्र में पाठ करना आवश्यक है । इस प्रकार 'पुष्यादि पाठ' ज्ञापक नहीं बन सकता है किन्तु ‘दश' -(४/१/५२ ) निर्देश ही ज्ञापक बनता है, तो वह भी उचित ही है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार करते हैं ।
यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन और परिभाषापाठ, शाकटायन तथा जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में प्राप्त है ।
॥९४॥ आत्मनेपदमनित्यम् ॥३७॥
आत्मनेपद की प्राप्ति हो, तथापि, क्वचित् शिष्टप्रयोगानुसार, नहीं होता है । शिष्ट पुरुषों के प्रयोगानुसार, आत्मनेपद की प्राप्ति हो, तथापि नहीं होता है । क्वचित् आत्मनेपद की प्राप्ति न हो, तथापि हो जाता है, वही अनित्यता है ।
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