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________________ २६८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) ॥ ९३ ॥ द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति ॥३६॥ दो बार कही हुई बात दृढ होती है । जिसके लिए व्याकरण के धातुपाठ इत्यादि में दो बार प्रयत्न किया हो वह बताता है कि 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति', दो बार कहा हुआ एक ही कार्य नित्य होता है अर्थात् अव्यभिचारी रूप से वह कार्य होता ही है । उदा. 'असूच् क्षेपणे' धातु से अद्यतनी का 'दि' प्रत्यय पर में होने पर ' आस्थत्' रूप होगा । यहाँ 'अङ्' का व्यभिचार नहीं होता है । यही 'अस्' धातु से 'शास्त्यसूवक्तिख्यातेरङ् ' ३/४/६० से अङ्ग प्रत्यय होगा और पुष्यादि गणपाठ में 'असूच् क्षेपणे' धातु होने से 'लृदिद्युतादिपुष्यादेः परस्मै' ३/४/६४ से भी 'अङ्' प्रत्यय होनेवाला है । अन्य कुछेक के मतानुसार पुष्यादिगणपठित धातु में क्वचित् 'अङ्' का व्यभिचार पाया जाता है | उदा. भगवन् मा कोपीः । [ बालरामायण ] यहाँ पुष्यादित्व होने पर भी 'अ' प्रत्यय नहीं हुआ है। 'दंश' धातु से, 'यङ्' प्रत्यय का लोप होने पर, किसी भी सूत्र से नहीं होनेवाला 'न' का लोप होगा ही, उसका ज्ञापन करने के लिए 'गृलुपसदचरजपजभदशदहो गयें' ३/४/१२ सूत्र में यङन्त 'दंश' धातु के 'न' का लोप 'दश' निर्देश द्वारा दिखा दिया होने पर भी, पुनः 'जपजभदहदशभञ्जपश: ' ४/१/५२ में किया 'दश', स्वरूपनिर्देश ही, इस न्याय का ज्ञापक है । इसका ज्ञापकत्व इस प्रकार है । यहाँ श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने ऐसा विचार किया कि किसी भी ज्ञापक द्वारा एक बार ज्ञापित विधि, 'समासान्तागम-ज्ञापक- गण - ननिर्दिष्टानि अनित्यानि ' न्याय से, जैसे 'दशैकादश' शब्द के अकारान्तत्व में अनित्यता आती है, वैसे यहाँ भी 'दंश' के उपान्त्य 'न' का लोप न होने की आपत्ति आती है, वह न हो, उसके लिए 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' न्याय से अनित्यता का भय दूर करने के लिए ही श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने 'दंश' के उपान्त्य 'न' - लोप का दो बार ज्ञापन किया है । यदि यह न्याय न होता तो, दो बार ज्ञापित विधि में आती अनित्यता का निषेध किसी भी प्रकार से संभव नहीं है किन्तु इस न्याय से दो बार ज्ञापित विधि में नित्यत्व प्राप्त हो जाता है । अतः आचार्यश्री के अपने मतानुसार 'दंदशीति' प्रयोग में उपान्त्य 'न' का लोप होता ही है । Jain Education International अन्य कुछेक के मतानुसार यङ्लुबन्त 'दंश' धातु के उपान्त्य 'न' का लोप नहीं हुआ है । अतः ‘दन्दंशीति' प्रयोग भी होता है, और यही रूप श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं 'जपजभ'....४/१/ ५२ सूत्र की वृत्ति में साक्षात् बताया है, अतः वही रूप भी उनको अंशतः सम्मत ही है, ऐसा मानना चाहिए । अतः उसकी सिद्धि करने के लिए इस न्याय की अनित्यता का आश्रय लेना चाहिए । श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय की अनित्यता बताने के बजाय यह कहते हैं कि जिनके मत से ' दन्दंशीति' में 'दंश' के उपान्त्य 'न' का लोप नहीं होता है, उसके मत से यह न्याय है ही नहीं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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