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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) का स्वीकार नहीं करते हैं और इस प्रकार सिद्धि हो सकती है या नहीं ? ऐसी शंका उठाकर, उसी शंका का श्रीहेमहंसगणि ने दिये हुए समाधान का भी स्वीकार नहीं करते हैं ।
इस शंका का समाधान देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ 'कृष्ण' शब्द कौन-सा लेना ? गुणवाचि या गुणाङ्गवाचि ? यदि 'कृष्ण' शब्द वर्णवाचक अर्थात् गुणवाचक लेंगे तो 'ट्यण' नहीं होगा क्योंकि वही 'ट्यण' तो गुणाङ्गवाचि शब्द से होता है।
किन्तु यही समाधान सही नहीं है क्योंकि केवल वर्णवाचक 'कृष्ण' शब्द से भी भाव में 'वर्णदृढादिभ्यः'- ७/१/५९ से ट्यण होता है । वस्तुत: ‘वर्णदृढादिभ्यः'-७/१/५९ से होनेवाले 'ट्यण' से निष्पन्न कार्यम्' और पतिराजान्तगुणाङ्ग'-७/१/६० से 'ट्यण' होकर बने ‘कार्यम् दोनों में बहुत अन्तर है । प्रथम 'कार्यम्' शब्द में 'वर्णदृढादिभ्यः'-७/१/५९ से हुआ 'ट्यण', 'कृष्ण' रूप गुण में रही हुई 'कृष्णत्व' जाति का ही अभिधान करता है, अतः उसका काक के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है, अत एव 'काकस्य कार्यम्' प्रयोग नहीं हो सकेगा । जबकि 'काकस्य कृष्णस्य भावः काकस्य कार्यम्' प्रयोग में 'कृष्ण' शब्द गुणाङ्गवाचि ही है, अत: भावप्रत्यय द्वारा गुण का अभिधान होने से पूर्व 'काकस्य कृष्णस्य भावः' में समानाधिकरण्यमूलक षष्ठी विभक्ति है, ऐसा जान लेना, जबकि भावप्रत्यय होने के बाद षष्ठी 'काकस्य कार्यम्' में सम्बन्धमूलक षष्ठी होती है, ऐसा जान लेना, और ऐसा करने से 'कृष्ण' शब्द में सापेक्षत्व रहता ही है । अतः इस न्याय की प्रवृत्ति बिना भाव में प्रत्यय करना असंभवित है। इस प्रकार यहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति होती है।
यह न्याय भी अन्य किसी भी परम्परा में प्राप्त नहीं है। ॥८८॥ गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैर्विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव
समासः ॥३१॥ विभक्ति जिसके अन्त में है वैसे गतिसंज्ञक नाम, कारक हो वैसे शब्द और कृदन्त के सूत्र में जो नाम ङसि अर्थात् उपलक्षण से पंचमी विभक्ति के तीनों प्रत्ययों से उक्त हो वैसे सभी विभक्त्यन्त नाम का जब कृदन्त के साथ समास होता है तब उसी (उत्तरपद स्वरूप) कृदन्त से विभक्ति होने से पहले ही समास हो जाता है और उसी समास से ही विभक्ति होती है।
यद्यपि 'नाम नाम्नैकार्थ्ये समासो बहुलम्' ३/१/१८ में कहा है कि 'नाम' को 'नाम' के साथ समास होता है अर्थात् विभक्त्यन्त नाम को ही विभक्त्यन्त नाम के साथ समास होता है ऐसा स्पष्ट कहा नहीं है, तथापि, 'ऐकायें ' ३/२/८ से समासान्तर्वति विभक्ति का लोप होता है, उससे ज्ञापित होता है कि विभक्त्यन्त का ही, विभक्त्यन्त के साथ ही समास होता है । अतः दोनों पदों को विभक्त्यन्तत्व की प्राप्ति होने से, कृदन्त स्वरूप उत्तरपद के अविभक्त्यन्तत्व का नियम करने के लिए यह न्याय है।
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