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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ८७) २५३ चर्चा की है । इसके सम्बन्ध में शब्दनित्यवादी और शब्दानित्यवादी पक्षों के मत की भी समीक्षा की गई है । इसके संदर्भ में ही जहत्स्वार्था तथा अजहत्स्वार्था वृत्तियों का समास में कैसे विनियोग होता है, उसके बारे में विविध दृष्टिबिंदु/अभिप्राय प्रस्तुत किये गये हैं । अन्त में जहत्स्वार्था पक्ष का समर्थन करते हुए आचार्यश्रीलावण्यसूरिजी ने इस विषय का उपसंहार करते हुए कहा है कि जिज्ञासुओं को विशेष विस्तार के लिए आकर ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए । प्रस्तुत न्याय के सन्दर्भ में यह चर्चा प्रत्यक्ष रूप से उपकारक न होने से जिज्ञासुओं को श्रीलावण्यसूरिजी की वृत्ति/टीका देख लेने की विनंति करते हैं। ॥८७॥ तद्धितीयो भावप्रत्ययः सापेक्षादपि ॥३०॥ तद्धित सम्बन्धित भावप्रत्यय, सापेक्ष शब्द से भी होता है। उदा. 'काकस्य कृष्णस्य भावः, काकस्य कार्यम्' इत्यादि प्रयोग में 'काक' शब्द से सापेक्ष ऐसे 'कृष्ण' शब्द से भी 'पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च' ७/१/६० से ट्यण् प्रत्यय होगा। इस न्याय का ज्ञापक 'पुरुषहृदयादसमासे' ७/१/७० सूत्रगत 'असमासे' शब्द है। इसी सूत्र का अर्थ इस प्रकार है :- समास का विषय न हो तो 'पुरुष' और 'हृदय' शब्द से भाव और कर्म में 'अण्, त्व' और 'तल्' प्रत्यय होते हैं । उदा. 'पुरुषस्य भावः कर्म वा पौरुषम्, पुरुषत्वं, पुरुषता'। यदि समास होनेवाला हो तो 'भावे त्वतल' ७/१/५५ से सिर्फ 'त्व' और 'तल' प्रत्यय ही होते हैं किन्तु 'अण्' प्रत्यय नहीं होता है। उदा. 'परमस्य पुरुषस्य भावः परमपुरुषत्वम्, परमपुरुषता । यहाँ 'अण्' होकर 'परमपौरुषम्' प्रयोग नहीं होगा। यदि यह न्याय न होता तो समासविषयक 'पुरुष' शब्द को 'परम' शब्द की अपेक्षा होने से 'सापेक्षमसमर्थम्' न्याय से ही असमर्थ होने से 'अण्' होने की प्राप्ति ही नहीं है तो, 'अण्' का अभाव करने के लिए 'असमासे' कहने की क्या आवश्यकता ? तथापि 'असमासे' कहा, उससे ज्ञापित होता है कि 'सापेक्षमसमर्थम्' न्याय का बाधक यह न्याय होने से, सापेक्ष शब्द से भी तद्धितीय भावप्रत्यय होने की पूर्णतः संभावना है। इस न्याय की अग्राह्यता/अनित्यता नहीं है। श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय की सिन्धु टीका में 'यत्तु "गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति".....सिद्धिः सम्भाव्यते' कहकर किसी का मत बताया है किन्तु यही उद्धरण किसका है और कहाँ से लिया है, वह बताया नहीं है । हालाँकि यह बात श्रीहेमहंसगणि के इस न्याय के न्यास में पूर्वपक्ष स्वरूप में है । उसका भावार्थ इस प्रकार है : 'गुणे शुक्लादयः, पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति' लिङ्गानुशासन की पंक्त्यनुसार, 'गुण' और 'गुणि' में अभेदोपचार करने से या 'गुणवाचि' शब्दों से मत्वर्थीय प्रत्यय का लोप हुआ है ऐसा मान लेने से या 'शुक्ल' इत्यादि शब्दों का गुणपरत्व और गुणिपरत्व सर्वसंमत होने से गुणवाचक 'कृष्ण' शब्द से भाव में 'ट्यण' प्रत्यय करके 'कार्यम्' सिद्ध करके बाद में उसका 'काक' के साथ सम्बन्ध करने से, इस प्रयोग की सिद्धि हो सकती है और ऐसा करने पर इस न्याय की आवश्यकता भी नहीं रहती है किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी इस बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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