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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८८) २५५ उसमें 'गति' संज्ञक और कृदन्त का समास इस प्रकार होता है :- “विकिरति पक्षौ इति स्त्री चेत् विष्करी' इत्यादि प्रयोग में केवल पक्षी अर्थ की अपेक्षा होने से, अन्तरंग कार्यस्वरूप स्सट्' वौ विष्किरो वा ' ४/४/९६ से प्रथम होगा, बाद में 'विस्किर' स्थिति में 'ऊर्याद्यनुकरण'- ३/१/ २ से जिसकी 'गति' संज्ञा हुई है, उसी 'वि' का जिसके अन्त में 'नाम्युपान्त्यप्रीकृगृज्ञः कः' ५/१/ ५४ से 'क' प्रत्यय आया, उसी 'स्किर' के साथ 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः' ३/१/४२ से तत्पुरुष समास होगा और अन्त में 'असोङसिवूसहस्सटाम्'२/३/४८ से 'स्सट्' के 'स' का 'ष' होगा । अर्थात् 'विष्किरः पक्षी' होगा। बाद में स्त्रीत्व की विवक्षा में, अकारान्त होने से 'जातेरयान्तनित्यस्त्रीशूद्रात्' २/४/५४ से 'डी' प्रत्यय होकर 'विष्किरी' शब्द होगा । यदि यह न्याय न होता तो विभक्त्यन्त 'स्किर' कृदन्त के साथ ही 'वि' का समास होगा, तब कर्म इत्यादि शक्ति तथा संख्या इत्यादि की अपेक्षा से बहिरङ्ग ऐसी विभक्ति की उत्पत्ति के पहले ही केवल स्त्रीत्व की विवक्षा की अपेक्षा से, अन्तरङ्ग कार्यस्वरूप आप् प्रत्यय पहले ही होगा और 'स्किर' के स्थान में 'स्किरा' के साथ समास होने पर अकारान्तत्व रहित 'विष्किरा' शब्द होगा, अतः 'ङी' नहीं होगा। कारक और कृदन्त का समास इस प्रकार होता है । उदा: 'चर्मणा क्रीयते स्म चर्मक्रीती' इत्यादि प्रयोग में 'चर्मन् टा क्रीत' स्थिति में 'चर्मन्' शब्द कारक है और तृतीया विभक्त्यन्त है । उसका 'क्त' प्रत्ययान्त 'क्रीत' कृदन्त के साथ, ‘कारकं कृता' ३/१/६८ से तत्पुरुष समास होगा, बाद में 'क्रीतात्करणादेः' २/४/४४ से अकारान्त 'क्रीत' शब्द जिसके अन्त में है, वैसे 'करणादि' शब्द से 'ङी' प्रत्यय होगा। __ यदि विभक्त्यन्त 'क्रीत' शब्द के साथ 'चर्मन् +टा' का समास होगा तो, ऊपर बताया उसी तरह यहाँ भी आप अन्तरङ्ग होने से विभक्ति की उत्पत्ति से पूर्व ही आप् प्रत्यय होता तो अकारान्तत्व के अभाव में 'की' प्रत्यय नहीं होगा । पूर्वपद तो विभक्त्यन्त ही होता है। अतः 'चर्मन्' पद होगा और उसके 'न्' का 'नाम्नो नोऽनह्नः २/१/९१ से लोप होगा। 'ङस्युक्त' और 'कृदन्त' का समास इस प्रकार होता है। कृत्प्रत्यय विधायक सूत्र में 'ङसि' अर्थात् एकदेश का समुदाय में उपचार करने पर, संपूर्ण पंचमी विभक्ति द्वारा और 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से अन्त का व्यपदेश करने पर पंचमी विभक्ति का प्रत्यय जिसके अन्त में है, ऐसे शब्द से उक्त, विभक्त्यन्त शब्दों को विभक्ति रहित कृदन्त के साथ समास होता है। उसमें ङसि द्वारा उक्त इस प्रकार है :- 'कच्छं पिबति इति कच्छपी' प्रयोग में 'कच्छ अम् प' स्वरूप स्थिति में 'नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः' ५/१/१३१ सूत्र से अधिकृत जो 'नाम्नो' पद है उसकी अनुवृत्ति 'स्थापास्नात्रः कः' ५/१/१४२ में आती है। अत: उसी 'नाम्नः' पद से उक्त किसी भी 'नाम' है, उससे पर आये हुए 'स्था, पा, स्ना, त्रा' धातु से क प्रत्यय होता है । अत: 'क' प्रत्ययान्त प के साथ ङसि द्वारा उक्त 'नाम्नः' पद से जो भी शब्द लिया जायेगा उसका समास होगा और यही शब्द १. 'गति' संज्ञक शब्दों को अव्यय संज्ञा होती है और 'अव्यय' संज्ञावाले शब्दों के प्रत्येक स्यादि प्रत्यय का लोप' 'अव्ययस्य' ३/२/७ से होता है । अत: 'गति' संाक प्रत्येक शब्द विभक्त्यन्त कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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