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________________ २५० ॥ ८५॥ सापेक्षमसमर्थम् ॥ २८॥ अन्यपद की अपेक्षायुक्त पद, दूसरे पद के साथ, समास इत्यादि विधि के लिए समर्थ नहीं हो सकता है । न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) उदा. 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः' यहाँ 'राजन्' शब्द का विशेषण 'ऋद्ध' शब्द होने से, शब्द के साथ उसका समास नहीं होगा । 'पुरुष' इस न्याय का ज्ञापन, ऐसे प्रयोग में समास इत्यादि का निषेध करने के लिए कोई विशेष सूत्र की रचना नहीं की है, उससे होता है । 'समर्थः पदविधि:' ७/४/१२२ परिभाषा का, यह न्याय, प्रपंच है । यह न्याय अनित्य होने से 'देवदत्तस्य दासभार्या' इत्यादि में 'दास' शब्द 'देवदत्त' का विशेषण होने से सापेक्ष होने पर भी समास हुआ है । अत: 'देवदत्तस्य यो दासः तस्य भार्या' 'देवदत्त के नौकर की पत्नी' अर्थ होगा । यहाँ ऐसा न कहना चाहिए कि अगले न्याय से 'देवदत्त' पद से सापेक्ष 'दास' शब्द को 'भार्या' शब्द के साथ समास होगा, क्योंकि 'दास' शब्द का क्रिया द्वारा 'देवदत्त' शब्द के साथ सामानाधिकरण्य का अभाव होने से, वह अप्रधान होगा। जबकि अगला न्याय तो, सापेक्ष हो किन्तु मुख्य-प्रधान होने पर ही, अन्यपद के साथ समास करता है । 'समर्थः पदविधि:' ७/४/१२२ सूत्र पद सम्बन्धित प्रत्येक विधि 'समर्थाश्रित' अर्थात् 'समर्थपदाश्रित' जानना है । 'सामर्थ्य' दो प्रकार के हैं - १. व्यपेक्षा सामर्थ्य और २. एकार्थीभाव सामर्थ्य । १. भिन्न भिन्न अर्थवाले पदों का आकांक्षावश होनेवाला सम्बन्ध 'व्यपेक्षा सामर्थ्य' है ' । २. जब पदों का अर्थ गौण हो जाता हो या तो उसके अर्थ की निवृत्ति होकर अन्य प्रधान / मुख्य अर्थ का ग्रहण हो तो दो अर्थों का एक ही अर्थ में रूपान्तरित होना या अन्य अर्थ का प्रगट होना एकार्थीभाव सामर्थ्य कहा जाता है । इसमें से वाक्य में 'व्यपेक्षा सामर्थ्य' होता है और समास में 'एकार्थीभाव सामर्थ्य' होता है । 'समर्थः पदविधि:' ७/४/१२२ परिभाषासूत्र का अर्थ इतना ही है कि पद-सम्बन्धित प्रत्येक कार्य में उपर्युक्त दो सामर्थ्यां में से एक सामर्थ्य तो अवश्य होता ही है। यहाँ व्यपेक्षा सामर्थ्यवाले समुदाय (वाक्य) में स्थित पदों को भी समासादि विधि की प्राप्ति होती है । उदा. 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः, महत् कष्टं श्रित:' इन दोनों पद समुदायों में परस्पर व्यपेक्षा सामर्थ्य है । अतः वे समर्थ माने जाते हैं और यही समर्थत्व दूर नहीं होने से समास होने का प्रसंग उपस्थित होता है, उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है । यह न्याय औचित्यसिद्ध होने से ज्ञापक की आवश्यकता नहीं है । ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं और श्रीहेमहंसगणि के 'यत्नान्तराकरण' ज्ञापक के प्रति वे अरुचि प्रदर्शित करते हैं । सिद्धहेम की बृहद्वृत्ति में 'समास, नामधातु, कृत्, तद्धित, उपपदविभक्ति, युष्मदस्मदादेश, प्लुतविधि' को भी 'पदविधि' कही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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