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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८६) २५१ इसके अतिरिक्त श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय को 'समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ परिभाषा के प्रपंच के रूप में भी स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि इस न्याय को 'समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। सिर्फ जहाँ 'व्यपेक्षा सामर्थ्य' है वहाँ उसके अवयवगत पदों में समास के असामर्थ्य का केवल बोध ही इस न्याय से होता है । अत: इन दोनों के विषय भिन्न भिन्न हैं। संक्षेप में यह न्याय केवल इतना ही बताता है कि जहाँ व्यपेक्षा सामर्थ्य हो वहाँ गमकत्व का अभाव होने से समास नहीं होता है । जबकि एकार्थीभाव सामर्थ्य हो वहाँ समास होता है । क्वचित् गमकत्व हो तो मुख्य शब्द विशेषणयुक्त/विशेषणसापेक्ष होने पर भी समास होता है- वही बात अगले 'प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः' ॥२९॥ न्याय से सूचित हो जाती है। यह न्याय चान्द्र को छोड़कर अन्य किसी भी परम्परा में प्राप्त नहीं है, शायद 'समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ सूत्र में ही इसका समावेश हो जाता होने से इसे पृथक् बताने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई होगी । जबकि अगला न्याय 'प्रधान्यस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः' न्याय जैनेन्द्र जैसे कुछेक परिभाषासंग्रह में प्राप्त है, अतः वहाँ भी शायद सूत्र के रूप में या ‘समर्थः पदविधिः' ७/ ४/१२२ सूत्र की वृत्ति में इस न्याय को बताया होगा। ॥८६॥ प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः ॥२९॥ प्रधान/मुख्य शब्द सापेक्ष हो, तो भी उसका समास होता है। जिसका क्रिया के साथ सामानाधिकरण्य द्वारा प्रयोग हुआ हो वह प्रधान/मुख्य माना जाता है। उदा. 'राजपुरुषोऽस्ति दर्शनीयः 'इत्यादि प्रयोग में समास होने से पूर्व की स्थिति में 'पुरुष' शब्द का, अपने विशेषण 'दर्शनीयः' शब्द के साथ सापेक्षत्व होने पर भी उसका 'राजन्' शब्द के साथ तत्पुरुष समास होगा । यहाँ पुरुषत्व का जो अधिकरण है, वही 'अस्ति' क्रिया का भी अधिकरण है । अतः क्रिया के साथ सामानाधिकरण्य से 'पुरुष' शब्द प्रधान है। इस न्याय का ज्ञापन 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ' ३/१/१०२ सूत्रगत 'साम्यानुक्तौ' शब्द से होता है। वह इस प्रकार है :- यह ‘साम्यानुक्तौ' शब्द 'पुरुषो व्याघ्रः शूरः' इत्यादि प्रयोग में समास का निषेध करने के लिए रखा है। 'व्याघ्र' और 'पुरुष' शब्द का समास इस प्रकार होता है - 'व्याघ्र इव व्याघ्रः' और बाद में 'पुरुषश्चासौ व्याघ्रश्च पुरुषव्याघ्रः' इत्यादि प्रयोग में 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ' ३/१/१०२ से कर्मधारय समास इष्ट है किन्तु 'व्याघ्रत्व' के उपचार करने के कारणस्वरूप 'शूरत्व' का उपन्यास किया जायेगा तब (उसी शूरत्व का उपन्यास इस प्रकार होता है- 'शूरः पुरुष अत एव शूरत्वेन व्याघ्र इव व्याघ्रः') 'पुरुषो व्याघ्रः शूरः' में 'पुरुष' और 'व्याघ्र' शब्द का समास इष्ट नहीं है। अतः उसकी निवृत्ति करने के लिए समासविधायक सूत्र में 'साम्यानुक्ति' शब्द का ग्रहण किया है और उसकी व्याख्या भी इस प्रकार की है कि यदि साम्य बतानेवाले शब्द का उपन्यास न किया हो तो कर्मधारय समास होता है । जबकि यहाँ साम्य बतानेवाले 'शूर' शब्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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