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________________ द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ८४ ) ॥ ८४ ॥ संज्ञा न संज्ञान्तरबाधिका ॥२७॥ पूर्वसूत्र से हुई संज्ञा का परसूत्र से हुई संज्ञा से बाध नहीं होता है । उदा. 'प्रस्थः ' यहाँ 'गति' और 'उपसर्ग' दोनों संज्ञा का सद्भाव / अस्तित्व होने से 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः ' ३ / १ / ४२ से तत्पुरुष समास भी होगा और 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' ५ /१/ ५६ से 'ड' भी होगा । २४५ इस न्याय का ज्ञापन ' धातोः पूर्जाथ' - ३/१/१ सूत्र से की गई, प्र' इत्यादि की उपसर्ग संज्ञा से होता है । यदि इसके बाद आये हुए 'उर्याद्यनुकरणश्च्वि' - ३/१/२ सूत्र से होनेवाली 'गति' संज्ञा द्वारा 'उपसर्ग' संज्ञा का बाध होता तो 'उपसर्ग' संज्ञा निष्फल ही होती, तो वह करते ही नहीं, तथापि वही 'उपसर्ग' संज्ञा की है उसका इस न्याय के कारण 'गति' संज्ञा से बाध नहीं होने के कारण ही की है । यह न्याय अनित्य है, अतः 'स्पृहेर्व्याप्यं वा' २/२/२६ में 'वा' का ग्रहण किया है। यदि यह न्याय नित्य ही होता तो 'स्पृह'धातु के व्याप्य को 'वा' के ग्रहण बिना ही, कर्म और संप्रदान दोनों संज्ञायें हो सकती हैं क्योंकि दोनों में बाध्यबाधकभाव का ही अभाव है। अतः कर्म संज्ञा का संप्रदानसंज्ञा से बाध नहीं होता। अतः 'वा' विकल्प बिना भी 'चैत्रं चैत्राय वा स्पृहयति' सिद्ध हो सकता है, तथापि वा का ग्रहण किया वह यह न्याय अनित्य होने से, संप्रदान संज्ञा से, कर्म संज्ञा का बाध हो जायेगा, ऐसी संभावना से ही । दूसरा भी एक न्याय यह है कि 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' वह इस प्रकार है :- 'करणं च ' २/२/१९ से दिव् धातु के 'करण' को एकसाथ ही 'कर्म' और 'करण' दो संज्ञाएँ होती हैं, अतः 'अक्षान् अक्षैर्वा दीव्यति' ऐसे दोनों प्रकारों के प्रयोग होते हैं। 'अक्षैदेर्वयते मैत्रश्चैत्रेण' प्रयोग में 'अक्ष' शब्द को 'करण' संज्ञा होने से तृतीया विभक्ति हुई है और 'कर्म' संज्ञा हुई होने से 'गतिबोधाहारार्थशब्दकर्मनित्याकर्मणामनीखाद्यदिवाशब्दायक्रन्दाम्' २/२/५ से प्राप्त नित्य अकर्मक धातु सम्बन्धित, अणि अवस्था के कर्ता को होनेवाली कर्मसंज्ञा 'चैत्र' को नहीं होती है और 'अक्ष' शब्द को कर्म संज्ञा हुयी होने से ही 'दिव्' धातु से 'आणिगि प्राणिकर्तृकानाप्याण्णिगः ' ३/३/१०७ सूत्र से प्राप्त अकर्मकलक्षण परस्मैपद नहीं होता है । यहाँ कोई कहता है कि 'अक्षैर्देवयते मैत्रश्चैत्रेण' प्रयोग में 'कर्म' और 'करण' दोनों संज्ञाएँ चरितार्थ हैं, तथापि 'अक्षान् अक्षैर्वा दीव्यति' प्रयोग होने पर भी दोनों संज्ञाओं की स्पर्द्धा में 'करणहेतुक' तृतीया विभक्ति ही उचित है किन्तु द्वितीया न हो क्योंकि वह पर है। यहाँ ऐसा उत्तर दिया जाता है कि आपकी बात सही है किन्तु जब 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय का प्रयोग होता है, तब द्वितीया भी होती है । वह इस प्रकार है :- इस न्याय का अर्थ यह है कि प्रत्येक कार्य के प्रतिसंज्ञा करनेवाले सूत्र भिन्न भिन्न माने जाते हैं, अत: 'करणं चं' २/२/१९ सूत्र में यद्यपि एकसाथ दो संज्ञाएँ की जाती हैं, तथापि 'अक्षान् अक्षैर्वा दीव्यति' वैसे दो प्रकार के प्रयोग पाये जाते हैं, उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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