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________________ २४६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) सिद्धि के लिए प्रति कार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय से 'करणं च' २/२/१९ सूत्र की पुन: आवृत्ति करके दो बार व्याख्या की जाती है। प्रथम बार 'दिवः करणं कर्म स्यात्' और दूसरी बार दिवः करणं करणं स्यात्' ऐसे दो बार भिन्न भिन्न संज्ञाएँ की जाती हैं और यही अर्थ 'च'कार से सूचित होता है क्योंकि 'अव्ययानामनेकार्थत्वात्' (अव्ययों के अनेक अर्थ होते हैं) अतः प्रथम व्याख्या में यही सूत्र केवल कर्मसंज्ञा का विधायक होता है किन्तु 'करण' संज्ञा का विधायक नहीं होता है। अतः 'अक्षान दीव्यति' प्रयोग किसी भी प्रकार के विरोध के बिना ही हो सकता है । यतः 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ का विचार करते समय प्रथम व्याख्या के पक्ष में 'करण' संज्ञा के विधान का ही अभाव होने से, तृतीया की प्राप्ति का भी अभाव होगा । अतः कर्म संज्ञा की किसके साथ स्पर्धा होगी ? अर्थात् स्पर्धा का भी अभाव होगा और दूसरी व्याख्यानुसार 'अक्षैर्दीव्यति' प्रयोग तो आपके मतानुसार भी संमत/निर्विगान ही है और ऐसी दो भिन्न भिन्न व्याख्याएँ 'अक्षान् दीव्यति, अक्षैर्दीव्यति' दो भिन्न भिन्न प्रयोगों की सिद्धि के लिए ही हैं। अब यहाँ दूसरी शंका होती है कि यदि आप दो भिन्न भिन्न व्याख्याएँ करेंगे तो उससे एक ही सूत्र में दो सूत्रों का आरोपण करने से वे दोनों भिन्न भिन्न सूत्र माने जायेगें तो भी इन दो सूत्रों से विहित कर्म और करण संज्ञाओं के बीच की स्पर्धा कैसे दूर हो सकती है ? और यही निवृत्ति न हो तो प्रथम 'करणं च' २/२/१९ से हुई कर्मसंज्ञा का, द्वितीय 'करणं' च '२/२/१९ सूत्र से हुई करणसंज्ञा से जो बाध होगा, वह कैसे दूर किया जा सकेगा ? उसका प्रत्युतर देते हुए कहते हैं कि जब 'करणं च' २/२/१९ सूत्र में सूत्रद्वयत्व का आरोप नहीं करेगें तब स्पर्धा होगी, किन्तु जब उसमें सूत्रद्वयत्व का आरोप करेगें तब, ये दोनों संज्ञाएँ अपने अपने सूत्र में स्थित होने से स्पर्धा की निवृत्ति होगी । जैसे एक ही घर के अंदर दीवार इत्यादि करके घर के दो भिन्न भिन्न विभाग में रहती सपत्नीयाँ/सौतें-जैसे एक-दूसरी को बिना बाधा पहुँचाए रहती हैं । यदि ऐसा न हो तो इसी एक सूत्र के दो सूत्र किये गये, वही प्रयत्न व्यर्थ होगा । इस प्रकार स्पर्धा की निवृत्ति होने पर कौन किस का बाध करेगा? तात्पर्य इस प्रकार है :- यहाँ 'करणं च' २/२/१९ सूत्र से होती दोनों संज्ञाओं का विधान 'अक्षैर्देवयते मैत्रश्चैत्रेण' इत्यादि प्रयोग में चरितार्थ है । अतः 'अक्षान् अक्षैर्वा दीव्यति' इत्यादि प्रयोग में ऊपर बतायी गई युक्ति से तृतीया ही हो सकती है, किन्तु द्वितीया का प्रयोग भी प्राप्त होता है। अतः उसके समर्थन में 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय के बल से एक ही 'करणं च' २/२/१९ सूत्र की दो भिन्न भिन्न व्याख्या द्वारा, उसी सूत्र में सूत्रद्वयत्व का आरोप करके, उसके प्रथम सूत्र द्वारा द्वितीया भी की जाती है। किन्तु यह 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय द्वारा उपर बतायी गई, युक्ति से 'करणं च' २/ २/१९ सूत्र में दो भिन्न भिन्न व्याख्या द्वारा सूत्रद्वयत्व का आरोप करके दो संज्ञाओं के बीच की स्पर्धा दूर करके, कर्म संज्ञा का करण संज्ञा से होनेवाले बाध को दूर किया, वह 'संज्ञा न संज्ञान्तरबाधिका' न्याय का ही एक प्रकार है, केवल उसका समर्थन करने की पद्धति ही भिन्न है । अतः इस न्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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