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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ८३ ) २४३ 1 पूर्वपदकार्य या उत्तरपदकार्य नहीं कहा जा सकता है । यही बात श्रीहेमहंसगणि की मान्यतानुसार है। किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यतानुसार 'पूर्वपद' शब्द का उच्चार कर कहे गये कार्य को ही पूर्वपद सम्बन्धित कार्य कहना ही औचित्यपूर्ण है । अतः 'वैयाकरण' इत्यादि में 'ऐ' आगम और आद्य स्वर की वृद्धि पूर्वपद सम्बन्धित कार्य नहीं है । वैसे 'परमायम्' में 'अयम्' आदेश उत्तरपद सम्बन्धित कार्य न होने से इस न्याय के बिना अनिष्ट रूप होगा, ऐसा भी न मानना चाहिए क्योंकि वही कार्य भी 'उत्तरपद' का उच्चार करके नहीं कहा गया है । यद्यपि 'अयम्' आदेश उत्तरपद में स्थित 'इदम् ' सम्बन्धित ही है तथापि वह उत्तरपद है, इसलिए उसका 'अयम्' आदेश करना है, वैसा नहीं है । और वृद्धि में तो संपूर्ण शब्द के आदि में स्थित स्वर की ही वृद्धि का विधान है, यदि वह शब्द सामासिक होने से, पूर्वपद के आद्यस्वर की वृद्धि होती है, तथापि वह पूर्वपद की वृद्धि नहीं कही जा सकती । अतः ऐसे उदाहरण में इस न्याय की प्रवृत्ति न करनी चाहिए, ऐसा उनका मत है । तथापि श्रीमहंसगणि ने दिये हुए 'परमायम्, परमाहम्, आग्नेन्द्र' इत्यादि प्रयोग में, उन्होंने इस न्याय की प्रवृत्ति का स्वीकार किया है, ऐसा, इस न्याय की 'तरंग' टीका देखने से स्पष्ट मालूम देता है । इस न्याय के दोनों अंश और उसके ज्ञापक की चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय के दोनों अंशों का स्वीकार करना संभव है तथापि इन दोनों के लिए भिन्न भिन्न ज्ञापक हों, ऐसा लगता नहीं है यहाँ पूर्वांश के ज्ञापक के रूप में 'य्वः पदान्तात् प्रागैदौत्' ७ / ४/५ सूत्र की वृत्ति के 'तत्प्राप्तौ सत्याम्' शब्दों के अनुवर्तन को माना है किन्तु वह उचित नहीं लगता है। ज्ञापक तो वही कहा जाता है कि जिसके बिना अमुक कार्य या रूप अनुपपन्न हो और जिसके अस्तित्व में ही वही कार्य उपपन्न हो । यहाँ इकार और उकार की वृद्धिप्राप्ति संभावना के विषययुक्त ही है, अर्थात् यदि यहाँ यत्व, वत्व, न हुआ होता तो, उसके स्थानी इकार और उकार की वृद्धि होती अर्थात् 'तत्प्राप्तौ सत्याम् ' पद, केवल उपलक्षण से इकार और उकार के स्वरूप का परिचय कराता है किन्तु वही इकार और उकार का व्यावर्तक नहीं है । और वृद्धिप्राप्ति का समय आये तब तक वे ही इकार उकार, इकार उकार ही रहते हों, यह आवश्यक नहीं है। अतः संधि से यत्व -वत्व होने पर भी 'तत्प्राप्तौ सत्याम्' पद का परिचायकत्व दूर नहीं होता है, अतः उसके द्वारा इस न्यायांश का ज्ञापन करना उचित नहीं है । दूसरी बात यह है कि परिनिष्ठित पद ही अन्यपद की आकांक्षा रखता है, इसके अनुसार 'व्याकरण' शब्द, उसकी सर्वथा निष्पत्ति न हो तब तक, उसे नामत्व भी प्राप्त नहीं होता है और नाम संज्ञा में ही द्वितीया कि उत्पत्ति होकर 'व्याकरणमधीते' इत्यादि विग्रह हो सकता है। इस प्रकार संहिता होने से तद्धित का 'अण्' प्रत्यय हो तब तक संधि बिना नहीं रहा जा सकता है । अतः इस न्याय से ऐसे प्रयोग में वृद्धिप्राप्तिकाल' आये तब तक, संधिकार्य की निवृत्ति नहीं हो सकती है और ऊपर बताया उसी तरह आद्य स्वर की वृद्धि का कार्य पूर्वपद सम्बन्धित या उत्तरपद सम्बन्धित नहीं है किन्तु संपूर्ण समुदाय सम्बन्धित है । इस प्रकार यहाँ इस न्याय के बिना भी कार्य सिद्ध हो सकता है और इस न्याय से इकार की वृद्धिप्राप्ति की सिद्धि नहीं हो सकती है । अतः 'तत्प्राप्तौ सत्याम्' शब्दों की अनुवृत्ति को इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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