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________________ २४२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'इदम्' सम्बन्धित माना जाय तो 'एकदेशविकृत-' न्याय से 'एदम्' का 'अयमियम्'- २/१/३८ से 'अयम्' आदेश होने पर 'परमयम्' रूप होगा और एकार को यदि 'परम' शब्द सम्बन्धित माना जाय तो, केवल 'दम्' ही बचेगा और अवयव में समुदाय का उपचार करने पर वही 'दम्' भी 'इदम्' ही कहा जायेगा अतः उसका भी 'अयमियम-'२/१/३८ से 'अयम' आदेश करने पर 'परमेऽयम' रूप होगा । ये दोनों रूप अनिष्ट है । अतः उत्तरपद का 'अयम्' आदेश करने के बाद ही यथाप्राप्त संधिकार्य होगा और 'अवर्णस्ये-' १/२/६ से 'एत्व' नहीं किन्तु 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से दीर्घविधि ही होगी। इस न्यायांश का ज्ञापन 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' ७/४/२९ सूत्रनिर्दिष्ट 'इन्द्र' शब्द के स्वर की वृद्धि के निषेध से होता है । वह इस प्रकार है :- 'अग्नेन्द्रौ देवतेऽस्य इति आग्नेन्द्रं सूक्तम्' । यहाँ 'अग्नेन्द्र' शब्द से 'देवता' ६/२/१०१ से 'अण्' प्रत्यय हुआ है। यहाँ प्रथम पूर्वपद सम्बन्धित कार्य करना । वह इस प्रकार है :- इस न्याय से सिद्ध 'वेदसहश्रुतावायु-' ३/२/४१ से 'अग्नि' के 'इ' का 'आ' होने के बाद, अण् प्रत्यय पर में होने से 'अग्ना इन्द्र अण' में 'देवतानामात्वादौ' ७/४/२८से उभयपद के आद्यस्वर की वृद्धि होने की प्राप्ति है । अत: 'अ' और 'इ' दोनों की वृद्धि होनेवाली है, उसका 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' ७/४/२९ से निषेध किया है। यह न्यायांश न होता तो, यही निषेध व्यर्थ होता । वह इस प्रकार है :- 'इन्द्र' शब्द में दो ही स्वर हैं, उनमें से प्रथम स्वरसंधि द्वारा दूर होता है अर्थात् 'अग्ना' के 'आ' के साथ 'इन्द्र' के 'इ' की संधि होने पर 'ए' होगा क्योंकि इस न्यायांश के अभाव में, एत्व विधि अन्तरङ्ग है, अतः 'अवर्णस्ये' १/२/६ से प्रथम एत्व होगा और दूसरा स्वर 'न्द्र' में 'अ' है, उसका 'अण्' प्रत्यय पर में होने से, 'अवर्णेवर्णस्य-' ७/४/६८ से लोप होने पर, वह दूर होगा, अत: 'इन्द्र' शब्द स्वररहित होने पर, उसके स्वर की वृद्धि की प्राप्ति ही नहीं है। अत: उसका निषेध भी व्यर्थ है । तथापि उसकी वृद्धि का निषेध किया, उससे सूचित होता है कि प्रथम उत्तरपद सम्बन्धित कार्य करना, उसके बाद ही पूर्वपद और उत्तरपद सम्बन्धित सन्धिकार्य करना । ऐसा करने पर 'अग्ना इन्द्र अण' में प्रथम सन्धिकार्य के स्थान पर 'देवतानामात्वादौ' ७/४/२८ से 'अ' की वृद्धि के साथ साथ 'इन्द्र' के 'इ' की भी वद्धि होने पर 'आग्ना ऐन्द्र आग्नैन्द्र' ऐसा अनिष्ट रूप होगा अतः उसकी वृद्धि का निषेध करना आवश्यक है। अतः ‘आतो नेन्द्रवरुणस्य' ७/४/२९ से किया गया वृद्धिनिषेध सार्थक है । यह न्यायांश अनित्य होने से 'परम इः यस्य तस्य परमेः' प्रयोग में 'परम इ' दो पदों में से उत्तरपद स्वरूप 'इ' का षष्ठी एकवचन का ङस् प्रत्यय पर में होने पर भी 'ङित्यदिति' १/४/२३ से 'ए' नहीं होता है । यदि ऐसा होता तो 'परमेः' के स्थान पर ‘परमैः' जैसा अनिष्ट रूप होता । इस न्याय के पूर्वोत्तरपदयोः कार्यं' अंश का अर्थ करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'पूर्वपदकार्य' अर्थात् पूर्वपद सम्बन्धित कार्य और उत्तरपदकार्य अर्थात् उत्तरपद सम्बन्धित कार्य न कि 'पूर्वपदं' और 'उत्तरपदं' शब्दों के उच्चार कर कहा गया कार्य । अन्यथा वृद्धिकार्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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