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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८३)
२४१ अपेक्षारहित होने से अन्तरङ्ग होने पर भी प्रथम नहीं होगा । यदि यह सन्धिकार्य अन्तरङ्ग होने से प्रथम होता तो, पूर्वपद और उत्तरपद के अवयव से उत्पन्न 'ई' का 'उभयस्थाननिष्यन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाक्' न्याय से, जब 'अग्नी' स्वरूप में 'ई' को पूर्वपद के अन्त में माना जायेगा तो उसका, 'वेदसहश्रुतावायुदेवतानाम्' ३/२/४१ से 'आ' होने पर 'अग्नान्द्रौ' होगा और जब उसी 'ई' को उत्तरपदके आदि में स्थित माना जायेगा तो, पूर्वपद 'अग्न्' होगा और उसके अन्त्य 'न्' का 'वेदसहश्रुता'-३/२/४१ से 'आ' होगा तो 'अगेन्द्रौ' रूप होगा । ऐसे इन दोनों प्रकार से अनिष्ट रूप ही होंगे । अतः 'आत्व' रूप पूर्वपद सम्बन्धित कार्य करके ही यथाप्राप्त सन्धिकार्य करना, वह यहाँ 'अवर्णस्येवर्णादि'- १/२/६ से होनेवाला 'एत्व' होगा।
इस न्याय का उपपादन/ज्ञापन ‘य्व: पदान्तात् प्रागैदौत्' ७/४/५ की वृत्ति में, पूर्वसूत्र में से अनुवृत्त 'वृद्धिप्राप्तौ सत्याम्' शब्दों से होता है । वह इस प्रकार है :- इसी सूत्र का अर्थ यह है कि 'जित् णित्' तद्धित प्रत्यय पर में आया हो तो, जिस 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण की वृद्धि होनेवाली है उन्हीं 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण के स्थान में हुए जो 'य्' और 'व्', उससे पूर्व अनुक्रम से 'ऐ' और 'औ' होता है । उदा. 'व्याकरणं वेत्ति अधीते वा, वैयाकरणः ।' यहाँ 'तद्वेत्त्यधीते' ६/२/११७ से 'अण्' हुआ है । वैसे, 'स्वश्वस्य अयम् ' में 'तस्येदम्' ६/३/१६० से 'अण्' होगा और 'सौवश्वः' होगा।
यदि यह न्यायांश न होता तो 'व्याकरण' और 'स्वश्व' शब्द बने तब ही यत्व और वत्व हो गया होने से, 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण की वृद्धि की प्राप्ति कैसे होती ? और यही 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण वृद्धिमान् न माना जाय तो 'य्वः पदान्तात् प्रागैदौत्' ७/४/५ से 'ऐ' और 'औ' भी कैसे होता?
किन्तु यह न्यायांश होने से 'अण्' प्रत्यय करते समय — वि आकरण अण्' और 'सु अश्व अण' की स्थिति में 'वि' और 'सु' के 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण का 'अण' के कारण वृद्धि रूप कार्य ही प्रथम होगा । किन्तु यत्व और वत्व रूप सन्धिकार्य प्रथम होगा, ऐसी संभावना से ही, आचार्यश्री ने 'वृद्धिप्राप्तौ सत्याम्' शब्दो की अनुवृत्ति की है और वही 'वृद्धिप्राप्ति' होने पर 'य्वः पदान्तात् प्रागैदौत्' ७/४/५ सूत्ररचना के सामर्थ्य से ही, उसी वृद्धि का बाध करके यत्व, वत्व ही होगा और बाद में 'ऐ, औ' होगा। __ इसी न्यायांश का अनैयत्य मालूम नहीं देता है।
उत्तरपद सम्बन्धित कार्य इस प्रकार है :- 'परमश्चासावयं च परमायम्' यहाँ परम सि- इदम् सि' में 'ऐकार्थ्य' ३/२/८ से स्यादि प्रत्यय का लोप होने पर 'परम इदम्' होगा, बाद में समासनिमित्तक 'सि' प्रत्यय होगा, तब 'परम इदम् सि' होगा यहाँ उत्तरपद के 'इदम्' का 'अयमियं पुंस्त्रियोः सौ' २/१/३८ से 'अयम्' आदेश स्यादि-पुल्लिङ्ग की अपेक्षा होने से बहिरङ्ग है, तथापि, प्रथम होगा, किन्तु 'अवर्णस्येवर्णादि'- १/२/६ से होनेवाला 'एत्व' स्यादिपुल्लिङ्ग की अपेक्षारहित ऐसा, पूर्वपद और उत्तरपद की सन्धि का कार्य, अन्तरङ्ग होने पर भी प्रथम नहीं होगा।
यदि यही अन्तरङ्ग कार्य प्रथम होता तो 'उभयस्थाननिष्पन्नो-' न्याय से, उसी एकार को यदि
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