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________________ २४० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) धातुओं का व्यावर्तक नहीं बनेगा । इस प्रकार जो धातु बिना 'अट्' ही स्वरादि होता है उसका ही 'अस्वरादेः' से व्यवच्छेद होता है । ऐसा अर्थ करने से कोई दोष पैदा नहीं होता है और धातु तथा प्रत्यय सम्बन्धित कार्य करने के बाद 'अट्' की प्रवृत्ति का कोई फल नहीं है । अतः इस 'अट्' सम्बन्धित अंश की आवश्यकता नहीं है। इसी 'अट्' अंश का ज्ञापक जो बताया, वह भी उचित नहीं है क्योंकि 'अनु' पद का अनुपादन प्रयोजनाभावमूलक ही है । इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी का कहना है कि उपात्त पद ही ज्ञापक बनता है, अनुपात्तपद नहीं और ज्ञापकत्व अर्थात् ज्ञापनकर्तृत्व और यदि कर्तृत्व न हो तो 'वन्ध्यासुत' इत्यादि की तरह, वह असंभवित बन जाता है और यदि यह अट्' अंश को अनावश्यक माना जाय तो, 'उपसर्गात् सुग् सुव सो'-२/३/३९ में स्थित 'अट्यपि' शब्द सप्रयोजन है क्योंकि 'अट्' नित्य होने से उसकी प्रवृत्ति ही प्रथम होगी, अत: उसी 'अट्' के व्यवधान के कारण षत्व की अप्राप्ति होगी । और इस प्रकार के ‘पश्चादड्भवने न किञ्चिद् विनश्यति' न्यायवृत्ति के अंश की श्रीहेमहंसगणि ने न्यास में स्पष्टता की है कि यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि 'अट्' आगम होने के बाद, उसके व्यवधान के कारण, उससे पूर्व हुए 'ष' का 'निमित्ताभावे'- न्याय से निवर्तन होता है क्योंकि षत्व में उपसर्ग और धातु का आनन्तर्य कारण है और वह 'अट्' के व्यवधान से नष्ट होता है, ऐसी शंका पैदा करके, उसका समाधान देते हुए वे कहते हैं कि 'आगमोऽनुपघाती' न्याय से अड् आगम से व्यवधान नहीं होता है , किन्तु इसी न्यायांश को न मानें तो ऐसे समाधान की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है। तथा 'अट्' आगम के लिए 'अड्धातोरादि'- ४/४/२९ में विषयसप्तमी की व्याख्या की है वह भी उचित है । यद्यपि ह्यस्तनी, अद्यतनी या क्रियातिपत्ति के प्रत्यय और धातु के बीच 'अट्' इत्यादि के व्यवधान के कारण निमित्तसप्तमी के स्थान में विषयसप्तमी उचित है, ऐसा स्वीकार करने पर भी, धातु और प्रत्यय सम्बन्धित सर्व कार्य करने के बाद भी, अड् आगम करने के लिए विषयसप्तमी की ही आवश्यकता है । इस प्रकार इसी न्यायांश के अस्तित्व का समाधान हो सकता है किन्तु इसी न्यायांश का भी ज्ञापक ‘एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र ही माना जा सकता है। यह न्याय सिद्धहेम को छोडकर अन्य किसी भी परम्परा में नहीं पाया जाता है । ॥८३॥ पूर्वं पूर्वोत्तरपदयोः कार्यं कार्यं पश्चात्सन्धिकार्यम् ॥२६॥ समास में प्रथम पूर्वपद सम्बन्धित कार्य और उत्तरपद सम्बन्धित कार्य भिन्न भिन्न रूप से करके, बाद में पूर्वपद और उत्तरपद की सन्धि का कार्य करना । 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' इत्यादि न्यायों का यह अपवाद है। पूर्वपद सम्बन्धित कार्य इस प्रकार है :- अग्निश्च इन्द्रश्च अग्नेन्द्रौ । यहाँ पूर्वपद 'अग्नि' के 'इ' का 'वेदसहश्रुतावायुदेवतानाम्' ३/२/४१ से 'आ' द्वन्द्व समास की अपेक्षा से बहिरङ्ग होने पर भी प्रथम होगा, किन्तु 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से होनेवाला सन्धिकार्य द्वन्द्व समास की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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