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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८२) २३९ __ यह न्यायांश भी अनित्य है, अत एव 'उपसर्गात्सुम्सुवसो'-२/३/३९में 'अट्यपि' कहा है। 'अभ्यषुणोद्' इत्यादि प्रयोग में 'अट्' का व्यवधान होने पर भी षत्व होता है । वह बताने के लिए 'अट्यपि' कहा है । यदि यह न्यायांश नित्य होता तो, प्रथम षत्व होने के बाद 'अड्' आगम होता और तो 'अट्' के व्यवधान से कोई फर्क न पडता, अत: 'अट्यपि' कहने की कोई आवश्यकता न थी, तथापि 'अट्यपि' कहा, वह बताता है कि यह न्याय अनित्य है। इस न्यायांश के दो अंश हैं और श्रीहेमहंसगणि ने दोनों के भिन्न भिन्न ज्ञापक बताये हैं। प्रथमांश का ज्ञापक 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र ही है। जबकि द्वितीयांश 'अट्' का ज्ञापक 'अड़ धातो-' ४/४/२९ सूत्र में ‘अनु' पद का ग्रहण नहीं किया है वह है । किन्तु बृहद्वृत्ति के आधार पर श्रीलावण्यसूरिजी ने द्वितीय अंश के ज्ञापक का खंडन किया है । 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० की बृहद्वृत्ति के कथनानुसार इसी सूत्र से ही संपूर्ण न्याय का ज्ञापन होता है । उसका भावार्थ इस प्रकार है :- 'यत्व ' तथा 'लुक' होने के बाद स्वरादित्व का अभाव हो जाने से 'स्वरादे'-४/४/३१ से वृद्धि नहीं होगी, अतः इसी सूत्र की रचना द्वारा वृद्धि का विशेष विधान किया है किन्तु यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि 'अड् धातोरादि'- ४/४/२९ और 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ में विषय सप्तमी होने से या 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ परसूत्र होने से 'यत्व' या 'लुक' होने से पूर्व ही वृद्धि होगी तो 'यत्व' या 'लुक्' की प्राप्ति कैसे होती है ? यही बात सत्य है अतः 'एत्यस्तेंवृद्धिः' ४/४/ ३० सूत्र ज्ञापन करता है कि 'कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चाद् वृद्धिस्तद्वाध्योऽट्च्' । अतः 'ऐयरु:, अध्यैयत' इत्यादि में 'इय्' आदेश होने के बाद वृद्धि होगी और 'अचीकरत्' में 'अट्' करने से पूर्व ही दीर्घविधि हो जायेगी क्योंकि 'अट्' होने के बाद स्वरादित्व के कारण दीर्घ नहीं हो सकता है। और यही बात उचित है क्योंकि 'अड् धातोरादि-' ४/४/२९ सूत्र की सर्वत्र प्राप्ति है और वह सामान्यविधि है, अतः स्वरादि या अस्वरादि सर्वत्र उसकी प्रवृत्ति का अवकाश है। जबकि 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ और 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र उसका अपवाद है। अतः यदि केवल वृद्धि ही अन्त में होती है ऐसा ज्ञापन हो तो 'अड्' आगम का कोई नैयत्य नहीं रहता है अत: उसकी पूर्वप्रवृत्ति होती है। किन्तु यही 'अड्' का भी यही ‘एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र से ही नियमन होता है क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद समान योगक्षेमवाले होते हैं और इस प्रकार न्यायसिद्धि होने के बाद 'अड़ धातो'- ४/४/२९ सूत्रगत 'अनु' पद के अनुपादान को ज्ञापक के रूप में बताने की कोई आवश्यकता नहीं है तथापि वैचित्र्य बताने के लिए दोनों अंशों में भिन्न भिन्न ज्ञापक बताये हैं किन्तु बृहद्वृत्ति अनुसार 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र ही संपूर्ण न्याय का ज्ञापक बनता है। 'अचीकरत्' प्रयोग की सिद्धि के लिए 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ सूत्र में 'अस्वरादेः' कहा है। यदि 'अट्' प्रथम हो जाता तो वह धातु स्वरादि हो जाता है। किन्तु यही बात सही प्रतीत नहीं होती है । वस्तुतः 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ सूत्रगत 'अस्वरादेः' वचन के सामर्थ्य से ही, जो धातु बिना 'अट्' ही स्वरादि हो उसे ही स्वरादि के रूप में यहाँ मानना चाहिए, अन्यथा ङ के विषय में सर्व धातुओं से 'अट्' अवश्य होता ही है, अत: सब ही धातु स्वरादि हो जायेंगे तो 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ में 'अस्वरादेः' निरर्थक होगा । इस प्रकार 'अस्वरादेः' पद स्वरादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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