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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ४/४/३१ से वृद्धि होगी ही, अतः वह नित्य है । अत एव प्रथम वृद्धि होने की प्राप्ति है तथापि नित्य ऐसी वद्धि प्रथम न होकर, इस न्याय से 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयव'- २/१/५० से 'डय' आदेश करने के बाद ही 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ से वृद्धि होगी। यदि प्रथम वृद्धि की जाय तो 'ऐयरु:' के स्थान में 'आयरु:' रूप और 'अध्ययत' के स्थान पर 'अध्यायत' रूप होगा, किन्तु वे इष्ट नहीं हैं ।
इस न्यायांश का ज्ञापन 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र की रचना द्वारा होता है । 'इंण्क् गतौ'अधि पूर्वक के 'इंक स्मरणे' और 'असक भुवि' धातुओं से शस्तनी का 'अन्' प्रत्यय होने पर अनुक्रम से 'आयन्, अध्यायन्, आसन्' इत्यादि रूप होते हैं, तब 'ह्विणोरप्विति' ४/३/१५, 'इको वा' ४/३/१६ होनेवाला 'य' का और 'श्नास्त्योर्लुक्' ४/२/९० से होनेवाले 'अ-लोप' का बाध करके 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ से वृद्धि प्रथम हो सकती है, क्योंकि वह पर और नित्य है, तथापि प्रथम वृद्धि करने के लिए 'एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र की रचना की, उससे ज्ञापित होता है कि यह न्यायांश होने से 'इंण्क्' और 'इंक्' का अनुक्रम से 'ह्विणोरप्विति-' ४/३/१५ और 'इको वा' ४/३/१६ से यत्व और श्नास्त्योर्लुक्' ४/२/९० से 'अस्' धातु के अ का लोप होने के बाद ही 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ से होनेवाली वृद्धि का विचार हो सकता है अर्थात् प्रथम यत्व और अ का लोप होने के बाद स्वरादित्व का अभाव होने से वद्धि नहीं होगी और 'आयन' इत्यादि रूप सिद्ध नहीं हो सकते हैं । अतः उन्हीं यत्व और 'अ-लोप' का बाध करने के लिए. पुनः ‘एत्यस्तेर्वृद्धिः' ४/४/३० सूत्र की, रचना की, वह सार्थक होगी।
इस अंश में यह न्याय अनित्य/अनियत है। अत: 'सम्' पूर्वक के 'कं प्रापणे' धातु अथवा 'ऋक् गतौ' धातु से 'समो गमृच्छि'- ३/३/८४ से आत्मनेपद होगा तब 'समार्ट' इत्यादि रूप में 'धुइ हुस्वाल्लुगनिटस्तथोः' ४/३/७० से प्राप्त 'सिच्' का लोप करने से पहले ही नित्य ऐसी वृद्धि प्रथम होगी और बाद में धुड् या इस्व न मिलने पर 'सिच्' का लोप नहीं होगा।
अट्विधि इस प्रकार है :- 'अचीकरत्' इत्यादि प्रयोग में पूर्वोक्त कारण से, नित्य और अल्पनिमित्तक होने से, अन्तरङ्ग ऐसे अट् की प्रथम प्राप्ति है तथापि 'लघोर्दी?ऽस्वरादेः' ४/१/६४ से पहले दीर्घ करने के बाद ही 'अट्' आगम होगा और यदि प्रथम 'अड्' किया जायेगा तो धातु स्वरादि हो जाने से, दीर्घ नहीं होगा।
इस न्यायांश का ज्ञापन 'अड् धातोरादि'- ४/४/२९ सूत्र में 'अनु' पद का उपन्यास नहीं किया है, उससे होता है। यदि नित्यत्व इत्यादि कारण से प्रथम 'अड्' करेंगे तो धातु स्वरादि हो जाने से, लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ से दीर्घविधि न होने से, 'अचीकरत्' इत्यादि रूप की सिद्धि नहीं हो सकती है। अत: धातु सम्बन्धित सर्व कार्य करने के बाद ही 'अड्' होता है, वही बताने के लिए 'अड् धातोरादि' -४/४/२९ सूत्र में 'अनु' पद का उपन्यास करना आवश्यक था, यदि ऐसा किया होता तो अच्छा होता, यही आचार्यश्री को मालूम था तथापि, ‘अनु' पद का उपन्यास नहीं किया है, उससे सूचित होता है कि यह न्यायांश होने से 'अनु' पद का उपन्यास किये बिना ही धातु सम्बन्धित सर्व कार्य करने के बाद ही 'अड्' आगम होगा, वह आचार्यश्री को मालूम है ही।
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