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________________ [28] ही प्राप्त होता है । ऐसे प्रयोगों की सिद्धि इसी न्याय की सहायता से हो सकती है । इसी न्याय में बताये गए 'चुक्ष शौचे' धातु का प्रयोग कल्पसूत्र की वृत्ति/टीका में पाया जाता है । यद्यपि मूल सूत्र में अर्धमागधी/प्राकृत में 'चोक्खा' पाठ मिलता है, अतः ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि अर्धमागधी-प्राकृत के अनुकरण स्वरूप यह धातु है । १०. 'न्यायसंग्रह' की न्यायार्थमञ्जूषाबृहद्वृत्ति का न्यास श्रीहेमहंसगणि ने स्वयं 'न्यायसंग्रह' की 'न्यायार्थमञ्जूषानामक बृहद्वृत्ति के विशिष्ट पदों की समझ देने के लिए/स्पष्टता करने के लिए या पाठकों की और से पैदा होनेवाले संभवित प्रश्नों के निराकरण/उत्तर के लिए यही न्यास की रचना की है। न्यास के शुरुमें ही उन्हों ने 'न्यायार्थमञ्जूषा' के प्रथम और द्वितीय श्लोकों की समझ दी है। प्रथम श्लोक में उन्होंने श्रीसिद्धचक्र भगवंत की स्तुति की है, साथ साथ उसी श्लोक में ही गर्भित रूप से अपने परम उपकारक गुरुभगवंत श्रीसोमसुन्दरसूरिजी की भी स्तुति की है, इसका स्पष्ट निर्देश उन्हों ने स्वयं न्यास में किया है। तो द्वितीय श्लोक में, चारों चरण में 'न्याय' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त है, इसका भी अर्थ उन्होंने न्यास में बताया है । वैसे तो इस न्याय में केवल शंका औरइसके समाधान स्वरूपशास्त्रार्थ ही है, अत: इसमें से बहुत कुछ आवश्यक शंका-समाधान उसी उसी न्यायों के हिन्दी विवेचन में दे दिया है। अतः यहाँ उसकी पुनरावृत्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी न्यास में कुल मिलाकर छ: स्थानो पर प्राचीन न्याय वृत्ति का संदर्भ पाया जाता है, उस में से तीन स्थानों का सन्दर्भ पहले दिया है। शेष तीन सन्दर्भ इस प्रकार है। १. आद्यन्तवदेकस्मिन् 'न्याय की व्याख्या के बारे में यही सन्दर्भ है।6 २. एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय के 'विकृत' पद का क्या अर्थ लिया जाय? विकारापन्न या वैसदृश्य ? इसके बारे में यहाँ प्राचीन न्यायवृत्ति के विकारापन्न अर्थ की चर्चा की गई है।१३. 'भाविनि भूतवदुपचारः' न्याय का ज्ञापक 'एकपदे' शब्द है या केवल 'पदे' शब्द है, इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने प्राचीन न्यायवृत्ति में प्राप्त 'एकपदे' ज्ञापक की स्पष्टता की है 48 इस न्यास में कुछेक ऐतिहासिक सन्दर्भ भी प्राप्त होते हैं। १. नासिकनगर में श्रीचन्द्रभस्वामि की प्रतिमा की प्रतिष्ठा/स्थापना, पांडवो की माता कुंता ने, युधिष्ठिर के जन्म के बाद की थी, ऐसे अर्थवाला श्लोक 'न्यास' में दिया है। 42. द्रष्टव्य : 'न्यायसंग्रह' पृ. १२५. कथ वाक्यप्रबन्धे, णिगि, बाहुलकात् णिचि वा 'भूरिदाक्षिण्यसंपन्नं यत्त्वं सान्त्वमचीकथः ।' कथण चुराद्यन्तस्य त्वचकथ इति स्यात् ॥३७।। ततश्च लेपसिक्थाद्यपनयने चोक्षौ (कल्पसूत्र, पंचमक्षण, सूत्र १०५, पृ. २४५) 44. श्रीसिद्धचक्रयन्त्रस्थापनायाश्च वृत्ताकारत्वात् सोमोपमा । श्रीसोमसुन्दर इति च स्वगुरुनामकीर्तनम्। (न्यायसंग्रह, न्यास. पृ. १५७) 45. अत्राद्ये पादे न्याय शब्दो राजनीतिवाची, द्वितीये अगर्हितवाणिज्यादिव्यापारवाची, तृतीये तार्किकप्रतीतानुमानादि प्रमाणवाची, तुर्ये वैयाकरणप्रसिद्धन्यायवाची समुदितसर्वप्रकारन्यायवाची वा। (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १५७) प्राक्तन्यां न्यायवृत्तावाद्यन्तवदेकस्मिन्निति न्यायस्य व्याख्यैवमस्ति । (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १६१) 47. ननु विकृतशब्दस्य विकारापन्नमिति व्याख्या प्राक्तन्यां न्यायवृत्तावस्ति, सैव युष्माकमप्यत्र कर्तुं युक्ता तत्कथं वैसदृश्येनेत्यूचे? (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १६२) प्राक्तन्यां न्यायवृतौ तु 'एकपदे' इति ज्ञापकम्' इति यदुक्तमस्ति तत् 'रषुवर्णात्'-२/३/६३ इति सूत्रे 'एकपदे' इति समासं दृष्ट्वैवेति सम्भाव्यते । (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १६३) 49. पाण्डवमात्रा कुन्त्या, सञ्जाते श्रीयुधिष्ठिरे पुत्रे ।। श्रीचन्द्रप्रभदेवः प्रतिष्ठितो जयति नासिक्ये ॥१॥ (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १६६) 46. 48. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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