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[27] "उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि' ॥४६॥, 'शुद्धधातूनामकृत्रिम रूपम्' ॥४७॥'क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते' ॥४८॥ न्याय शब्द और धातुओं के स्वरूप का बोध कराते हैं । जबकि 'उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतव्यपदेशभाक्' ॥४९॥ न्याय से लेकर यावत्संभवस्तावद्विधिः' ।५६॥ न्याय प्रकीर्णक हैं। आगे आये हए 'संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवत् ॥५७॥'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' ।।५८॥, 'परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतमन्तरेणापि वदर्थं गमयति' ॥५९॥, 'द्वौ नौ प्रकृतमर्थं गमयतः ॥६०॥, 'चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुच्चिनोति' ॥१॥'चानुकृष्टं नानुवर्तते' ॥१२॥'चानुकृष्टेन न यथासङ्ख्यम्' ॥६३॥ व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः' ॥६४॥ न्याय, सूत्र के अर्थ का निर्णय/निश्चय करने में सहायक हैं और अन्तिम न्याय, सूत्र में अध्याहार क्रियापद/ आख्यात की पूर्ति करता है।
इस प्रकार द्वितीय खंड के न्यायों का प्रविभाग हो सकता है। इसमें अन्य किसी अपेक्षा से परिवर्तन भी हो सकता है। ये सभी न्याय उसके उदाहरण, ज्ञापक, अनित्यता और अनित्यता के ज्ञापक इत्यादि से युक्त हैं।
जबकि तीसरे खण्ड में निर्दिष्ट अठारह न्याय केवल विशेष वचन स्वरूप ही हैं और अव्यापक होने से ज्ञापक इत्यादि से रहित बताये गये हैं । ये सभी न्याय प्रकीर्णक हैं।
___'यदुपाधेर्विभाषा तदुपाधेः प्रतिषेधः' ॥१॥ से लेकर 'सामान्याऽतिदेशे विशेषस्य नातिदेश:' ॥५॥ तक सत्रार्थ में स्पष्टता करनेवाले न्याय हैं। सर्वत्राऽपि विशेषेण सामान्य बाध्यते न त सामान्येन विशेषः ॥६॥ 'डित्त्वेन कित्त्वं बाध्यते' ॥७॥ और 'परादन्तरङ्ग बलीयः' ॥८॥ न्याय बलाबलोक्ति न्याय या बाध्यबाधक की स्पष्टता करनेवाले न्याय है। वैसे 'विधिनियमयोविधिरेव ज्यायान्' ॥१०॥ न्याय एक ही सूत्र के संभवित दो प्रकार की व्याख्या में से विधि अर्थयक्त व्याख्या का बलवत्त्व बताता है।
ध्याकरण के सूत्र में निर्दिष्ट विधि या निषेध किस का होता है उसकी स्पष्टता करनेवाला न्याय 'अनन्तरस्यैव विधिनिषेधो वा' ॥११॥ है, तो सर्वसामान्य सूत्र की प्रवृत्ति सर्वत्र होती है, ऐसा निर्देश 'पर्जन्यवलक्षणप्रवृत्तिः' ॥१२॥ न्याय से होता है। विभक्तिरहित नाम/प्रातिपदिक का प्रयोग भाषा में कभी नहीं होता है, ऐसा न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या' ॥१३॥ न्याय से निर्देश किया गया है । इस प्रकार अगले सभी न्याय भिन्न भिन्न विषय के हैं । अतः इन सभी न्यायों को प्रकीर्णक न्याय सदृश विशेषवचन कहे गये हैं।
चतुर्थ खण्ड में केवल एक ही न्याय है किन्तु बहुत महत्त्वपूर्ण न्याय हैं। यह न्याय संपूर्ण व्याकरणशास्त्र के शेष अंश का पुरक है। वैसे व्याकरणशास्त्र के प्रारंभिक अध्येताओं के लिए इस न्याय का है किन्तु अनुसन्धान कार्य करनेवालों के लिए इस न्याय में बहुत सी सामग्री/माहिती संगृहीत है।
सिद्धहेम व्याकरण व अन्य परम्परा के धातुपाठ में जहाँ जहाँ अन्तर है, उन सब का निर्देश इस न्याय और इसके न्यास में किया गया है । बहुत से धातुओं की विभिन्न परम्पराओं का भी निर्देश किया गया है ।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सिद्धहेम की परम्परा में 'कथण्' धातु को अकारान्त ही माना गया है, अतः अद्यतनी में 'अचकथत्', अचकथताम्, अचकथन्' इत्यादि रूप ही हो सकते हैं । अचीकथत्' इत्यादि रूप किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकते हैं किन्तु प्राचीन आगमशास्त्रों की वृत्ति इत्यादि में 'अचीकथत्' इत्यादि रूप 41. * द्रष्टव्यः 'न्यायसंग्रह' पृ. १२४. 'नडण् अवस्यन्दने इत्यस्य स्थाने णडण् इति नन्दी प्राह ।
* द्रष्टव्यः 'न्यायसंग्रह पृ. १२९ 'अत एव चन्द्रगोमी नाम वैयाकरणश्चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो यथालक्ष्यमनुसरणमवगम्य द्विवानेव धातून् पठितवान् न भूयस इति । * द्रष्टव्य : 'न्यायसंग्रह' पृ. १३१ अपि चैवं प्रकाराणां धातूनामतो लुकं बाधित्वाऽनुपान्त्यस्यात उत्पलमतीयेन 'अतो णिति' इति सूत्रेण वृद्धौ ‘अतिरीब्ली-' ४/२/२१ इति प्वागमे स्फुटापयति, तुच्छापयति, स्कन्धापयतीत्यपीष्यते
परैः।
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