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________________ [26] पृथक् बताया है अर्थात् इसी विषय में सिद्धहेम की परम्परा को स्वीकृति दी है/मान्य की है । सिद्धहेम की यही मान्यता का मूल शाकटायन परम्परा के परिभाषासंग्रह में प्राप्त होता है क्योंकि वहाँ भी उन्होंने इन दोनों न्यायों को पृथक् पृथक् बतायें हैं। इसकी विशेष चर्चा मैंने 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरड़े ॥२०॥ न्याय के विवेचन में की इस प्रकार प्रथम खण्ड में प्रस्तुत न्यायों का क्रम बहुत ही व्यवस्थित व विचारपूर्वक रखा गया है। द्वितीय खण्ड में श्रीहेमहंसगणि ने सिद्धहेमबृहद्वृत्ति, शब्दमहार्णवा बृहन् ) न्यास, लघुन्यास इत्यादि में प्राप्त पैंसठ न्याय दिये हैं । शुरु की आठ परिभाषाएँ व्याकरण के सूत्र में निर्दिष्ट शब्दों से किनका ग्रहण करना चाहिए उसकी स्पष्टता करती हैं। वे इस प्रकार है-: प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम् ॥१॥, प्रत्ययाप्रत्ययोः प्रत्ययस्यैव ॥२॥, अदाधनदायोरनदादेरेव ॥३॥, प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः प्राकरणिकस्यैव ॥४॥ निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन ॥५॥, साहचर्यात्सदशस्यैव ॥६॥, वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् ॥७॥, वर्णैकदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गह्यते ॥८॥ यद्यपि प्रत्येक न्याय स्वतंत्र है तथापि कुछेक में परस्पर संबन्ध भी है। उदा. (१) वर्णग्रहणे जातिग्रहणम ॥७॥, (२) वर्णैकदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गृह्यते ॥८॥ (१) ऋकारापदिष्ट कार्यं लकारस्यापि ॥१४॥ (२) सकारापदिष्टं कार्यं तदादेशस्य शकारस्यापि ॥१५॥ ये दोनों परिभाषाएँ समान स्वरूपवाली है तथापि विषय भिन्न भिन्न है। इसके समान स्वरूपवाली किन्त निषेधात्मक परिभाषा 'हस्वदीर्घापदिष्टं कार्यं न प्लुतस्य ॥१६॥ इसके साथ रखी है। तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥९॥ आगमा यद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥१०॥ स्वाङ्गमव्यवधायि ॥११॥ उपसर्गो न व्यवधायी ॥१२॥ येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि स्यात् ॥१३॥ परिभाषाएँ प्रायः प्रथम खण्ड में निर्दिष्ट 'एकदेशविकृतमनन्यवत् ॥७॥ परिभाषा से किञ्चित् समानस्वरूपवाली है। प्रथम खण्ड में तदन्तविधिविषयक एक भी न्याय नहीं है, जबकि द्वितीय खण्ड में संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं, न तदन्तस्य ॥१७॥, ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥१८॥, अनिनस्मन् ग्रहणान्यर्थवताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति ॥१९॥ ये तीन न्याय तदन्तविधि के बारे में हैं । इसे छोडकर अन्य एक भी न्याय तदन्तविधि विषयक नहीं है। वस्तुतः ये तीनों न्याय सिद्धहेम के सातवें अध्याय के चतुर्थ पाद के 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषासूत्र से पैदा होनेवाली आशंकाओं की स्पष्टता करने के लिए ही है । ऐसी विशेषता 'गामादा' धातुओं के सम्बन्ध में नहीं है, ऐसा 'गामादाग्रहणेष्वविशेषः' ॥२०॥ न्याय में बताया है। ___'श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिर्बलीयान्' ॥२१॥ न्याय से लेकर ‘संज्ञा न संज्ञान्तरबाधिका' ॥२७॥ तक के न्याय विशिष्ट प्रकार के बाध्य-बाधकों की स्पष्टता करते हैं । यद्यपि प्रथम खण्ड में 'पूर्वेऽपवादा....'॥३६॥ इत्यादि पांच न्यायों में सामान्यरूप से बाध्य-बाधकों का निरूपण किया है किन्तु उसमें मुख्यरूप से सूत्रों का बाध्यबाधकभाव बताया है जबकि यहाँ विशिष्ट विधियों के बाध्य-बाधकभाव का निरूपण है। 'सापेक्षमसमर्थम् ॥२८॥'प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः ॥२९॥"तद्धितीयो भावप्रत्ययः सापेक्षादपि' ॥३०॥ 'गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैर्विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव समासः' ॥३१॥ 'समासतद्धितानां वृत्तिर्विकल्पेन वृत्तिविषये च नित्यैवापवादवृत्तिः' ॥३२॥'आदशभ्यः सङ्ख्या सङ्ख्येये वर्तते न सङ्ख्याने' ॥३३॥ एकशब्दस्यासङ्ख्यात्वं क्रचित् ॥३४॥ न्याय तद्धितवृत्ति और समासवृत्ति के विषय में विशिष्ट समझ देते हैं । 'णौ यत्कृतं तत्सर्वं स्थानिवद् भवति' ॥३५॥ और 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' ॥३६॥ न्याय प्रकीर्णक हैं। उसके बाद 'आत्मनेपदमनित्यम्' ॥३७॥ से लेकर 'नाम्नां व्युत्पत्तिरव्यवस्थिता' ॥४५॥ न्याय तक विविधप्रकार के कार्यों की अनित्यता बतायी है । यद्यपि उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है तथापि उन सब में केवल अनैयत्य ही समान होने से, उसे एक साथ रखे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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