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________________ [25] सिद्धहेंम की परम्परा में सिर्फ दो ही परिभाषावृत्तियाँ है । १. 'न्यायसंग्रह' श्रीहेमहंसगणिकृत बृहद्वृत्ति और न्यास । २. 'न्यायसमुच्चय' श्रीलावण्यसूरिजी कृत 'न्यायार्थसिन्धु' व 'तरङ्ग' नामक दो टीकाएँ। 'न्यायसंग्रह' में जो क्रम परिभाषा / न्यायों का है उसमें श्रीलावण्यसूरिजी ने कोई परिवर्तन नहीं किया है । 'न्यायसंग्रह' के प्रथम वक्षस्कार निर्दिष्ट सत्तावन परिभाषाओं के क्रम में परिवर्तन करने की / होने की संभावना ही न थी क्योंकि इसका क्रम सूत्रकार आचार्यश्रीहेमचंद्रसूरिजी ने स्वयं निश्चित किया है और सूत्रकार की प्रवृत्ति के प्रति प्रश्न पैदा करना उचित नहीं माना गया है। शेष दो वक्षस्कार / खण्ड में श्रीहेमहंसगणि ने सूत्रकार आचार्यश्री का ही अनुसरण किया है, अतः उनके द्वारा दी गई परिभाषाओं के क्रम को सभी ने मान्य किया है । प्रथम वक्षस्कार के प्रथम 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' ॥१॥ न्याय से लेकर ' भाविनि भूतवदुपचारः ' ॥१॥ न्याय तक कुल मिलाकर नव सूत्र इष्ट रूपों / शब्दों की सिद्धि में सहायक है । 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम्' ॥१०॥ से लेकर 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य ॥ १९ ॥ परिभाषा / न्याय पूर्णसूत्र की विशिष्ट समझ देने में सहायक है, तो 'गौणमुख्ययोर्मुख्ये कार्यसम्प्रत्ययः ' ॥२२॥ से लेकर 'एकानुबन्धग्रहणे न द्व्यनुबन्धकस्य' ॥३३॥ परिभाषाएँ व्याकरण के सूत्र में निर्दिष्ट शब्दों से कौन से शब्द या धातु का ग्रहण किया जाता है, उसके निर्णय में सहायक है। जबकि 'नानुबन्धकृतान्यसारूप्यानेकस्वरत्वानेकवर्णत्वानि' ॥३४॥ परिभाषा निषेध की सूचना देती है, तो 'समासान्तागमसंज्ञाज्ञापकगणननिर्दिष्टान्यनित्यानि ॥३५॥ परिभाषा उन शब्दों से निर्दिष्ट कार्य के अनित्यत्व को बताती है । 'पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् ॥३६॥ से लेकर 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः ॥४०॥ परिभाषाएँ बाध्यबाधकभाव का निरूपण करती है । 'बलवन्नित्यमनित्यात् ' ॥४१॥ से लेकर ' अपवादात्क्वचिदुत्सर्गोऽपि ॥५६॥ परिभाषाओं को बलाबलोक्ति न्याय कहते हैं । सब के अन्त में उपर्युक्त सभी न्यायों की और व्याकरण के सूत्रों की अनिष्ट प्रवृत्ति को रोकनेवाला 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' ॥५७॥ न्याय है | यहाँ एक विशेष बात ध्यान देने योग्य यह है कि अन्य परिभाषासंग्रहकारों ने और विशेषतः पाणिनीय परम्परा में कुछेक वैयाकरणों ने 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' ॥२०॥ और 'न स्वरानन्तर्ये' ॥२१॥ परिभाषाओं को बलाबलोक्ति परिभाषा की कक्षा में रखी है, 40 जबकि कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने उन दोनों परिभाषा ओं को बलाबलोक्ति न्यायों से पृथक् कर दी है और वही समुचित है क्योंकि बलाबलोक्ति न्यायों से जो सूत्र बलवान् बनता है उसकी प्रवृत्ति होती है, निर्बल की नहीं । जबकि 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' ॥२०॥ न्याय से ऐसा बलवत्त्व नहीं होता है । यद्यपि पाणिनीय परम्परा के वैयाकरण इसी परिभाषाको अन्तरङ्गकार्य के बलवत्त्व की बोधक मानते हैं तथापि यहाँ बहिरङ्गकार्य होने के बाद प्राप्त नई परिस्थिति में यदि कोई अन्तरङ्गकार्य प्राप्त हो तो, उसी समय बहिरङ्गकार्य असद्वत् या असिद्ध अर्थात् हुआ ही नहीं है, ऐसा माना जाता है । परिणामतः अन्तरङ्गकार्य होता ही नहीं है और बहिरङ्गकार्य होने के बाद जो परिस्थिति पैदा हुई है वह कायम रहती है। इस प्रकार इन दोनों परिभाषाओं में परोक्षतः बहिरङ्गकार्य को प्रधानता दी गई है । अतः उसे बलाबलोक्ति न्यायों से पृथक् किया वह उचित ही I पाणिनीय परम्परा में सामान्यतया 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय में ही 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय का समावेश किया गया है तथापि यही मान्यता पाणिनीय परम्परा के पुरुषोत्तमदेव, सीरदेव, नीलकंठ और हरिभास्कर को मान्य नहीं है ऐसा लगता है क्योंकि उन्होंने 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय को 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय से 40. द्रष्टव्य : 'पाणिनीय संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परानो इतिहास' पृ. १०५ (ले. जयदेवभाई मो. शुक्ल) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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