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________________ [29] २. काकलकायस्थ, जिसने कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी के जीवनकाल में ही श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन की संक्षिप्त लघुवृत्ति शुरु के अध्येताओं के लिए बनायी थी और शायद श्रीहेमहंसगणि के समय में भी वह पढायी जाती होगी ऐसा अनुमान, इसी न्यास में प्राप्त शब्दों से हो सकता है। 'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' न्याय के न्यास में, श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में सूत्रकार आचार्यश्री ने सर्वत्र वर्तमाना' का प्रयोग किया है तथापि उनके द्वारा स्वयं लघुवृत्ति में प्रयुक्त 'सप्तमी' (विध्यर्थ )को अनुचित न मानना चाहिए । 50 अन्तिम न्याय के न्यास में उन्होंने पूर्वकालीन विभिन्न व्याकरण परम्पराएँ या वैयाकरणों के नाम निर्देश किया है। वह इस प्रकार है-देवनन्दी (नन्दी) सभ्याः, चान्द्र (चन्द्रगोमिन ), कौशिक, द्रमिल, चारक । इन सभी परम्परागत विभिन्न धातुपाठ का गहन आलोडन करके जहाँ जहाँ अन्तर पाया, उन सब का संग्रह इस न्याय में किया है। ११. परिभाषा-न्याय के स्रोतों -: स्वोपज्ञसिद्धहेमबृहवृत्ति, सिद्धहेमबृहन्न्यास (शब्दमहार्णवन्यास) और लघुन्यास, परिभाषा/न्यायों के मुख्य स्रोत हैं। यद्यपि बृहत्र्यास मूलतः ८४००० श्लोक प्रमाण था किन्तु वर्तमान में केवल २५००० श्लोक प्रमाण ही प्राप्त होता है। इसे छोडकर अन्यत्र यह न्यास खंडित है। उसे संपूर्ण करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास परमपूज्य तपागच्छाधिपति शासनसम्राट् आचार्य श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर आचार्य श्रीविजयलावण्यसरिजी ने किया है। मूलन्यास से पतंजलि के महाभाष्य की तुलना हो सकती है। जैसे पाणिनीय परम्परा में महाभाष्य के वचन को सब प्रमाणित करते हैं, वैसे सिद्धहेम की परम्परा में शब्दमहार्णव( बृहन् )न्यास को सब प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं । शब्दशास्त्र - व्याकरणशास्त्र के विशिष्ट सिद्धांतों की चर्चा इसमें पायी जाती है । उसी शास्त्रीय चर्चा के दौरान न्यायों-परिभाषाओं की भी चर्चा की गई है। १. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में प्राप्त न्यायों के कुछेक निर्देश इस प्रकार है। "एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय 'जराया जरस्वा' २/१/३ और 'आ रायो व्यञ्जने' २/१/५ सूत्र में प्राप्त है। यद्यपि 'न्यायसंग्रह' की बृहद्वत्ति में 'जराया जरस्वा' २/१/३ सूत्र का निर्देश तो है ही, तथापि 'आ रायो व्यञ्जने' २/१/५ सूत्र में भी इस न्याय का निर्देश है। सिद्धहेमबहत्ति में प्रायः न्यायों का निर्देश व न्यायों की प्रवृत्ति ही बतायी गई है। कोई विशेष शास्त्रीय चर्चा नहीं की गई है। लोकात्' १/१/३ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'परान्नित्यम्, नित्यादन्तरङ्गम्, अन्तरङ्गाच्चानवकाशम्' न्याय प्राप्त है । ऐसे 'मोर्वा' २/१/९ सूत्र में 'सकृदगते स्पर्धे यद्बाधितं तद्बाधितमेव' तथा 'विबर्थं प्रकृतिरेवाह' न्यायों का निर्देश प्राप्त होता है। सूत्रकार आचार्यश्री ने बृहवृत्ति के अन्त में दिये हुए ५७ न्यायों में 'लुबन्तरङ्गेभ्यः' ॥४७॥ न्याय भी है। यही न्याय त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११ सूत्र की बृहवृत्ति में 'बहिरङ्गाऽपि लुप् अन्तरङ्गान् विधीन बाधते ।' के रूप में बताया है । यहाँ सूत्र में निर्दिष्ट प्रत्ययोत्तरपदे' को इसी न्याय का ज्ञापक बताया है। 'तन्मध्यपतितस्तग्रहणेन गृह्यते' न्याय का निर्देश उसके ज्ञापक स्वरूप 'त्वमहं सिना प्राक् चाकः' २/१/ १२ सूत्र में किया है । 'एतदश्च व्यञ्जनेऽनग् नसमासे' १/३/४६ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ।' न्याय का उपयोग और उसकी चर्चा की गई है। यहाँ 'अनक्' शब्द को इस न्याय का ज्ञापक माना जा 50. न च काकलकायस्थकृतलक्षणलघुवृत्तिस्थः सप्तम्यन्तक्रियाप्रयोगोऽनुचित इति वाच्यम् । (न्यायसंग्रह, न्यास, पृ. १८७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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