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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७८) २२७ इस न्याय का ज्ञापक 'ऋतां क्ङितीर् ४/४/११६ सूत्र में 'ऋतामृतः' कहने के स्थान पर 'ऋतां' कहा, वह है । इसके बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यही ज्ञापक उचित नहीं है। इस न्याय के विषय में सूत्रकार श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं किसी भी प्रकार का ऐसा विधान नहीं किया है कि जिससे यहाँ केवल 'ऋतां' कहने से ही ऋकारान्त के अन्त्य 'ऋ का ही 'इर्' आदेश हो सके । अत: 'ऋतां' निर्देश द्वारा इस न्याय का ज्ञापन नहीं हो सकेगा और इस न्याय के बिना 'ऋतां' निर्देश की व्यर्थता भी प्रतीत नहीं होती है । इसलिए इस न्याय का ज्ञापक यदि बताना ही हो तो 'किरो लवने' ४/४/९३ सूत्रगत 'किरः' और उसके जैसे अन्य सूत्रगत अन्य प्रयोगों को ही ज्ञापक के रूप में बताने चाहिए । यदि यह न्याय न होता तो 'ऋतां क्ङितीर्' ४/४/११६ सूत्र में 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ और 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा की प्रवृत्ति से संपूर्णः ऋकारान्त' धातु का 'इर्' आदेश हो जाता तो यही 'किरः' इत्यादि निर्देश व्यर्थ हो जाता है । वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है । अतः जहाँ 'ऋतां' कहा है वहाँ केवल 'ऋ' का ही 'इर्' आदेश होगा, किन्तु 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ से ऋकारान्त धातु का ग्रहण अनुमित है और उसी अनुमित संपूर्ण स्थानी का 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से 'इर्' आदेश नहीं होगा किन्तु ऊपर बताया उसी तरह श्रौत ऋ का ही 'इर्' आदेश होता है किन्तु इस बात का भी उन्होंने आगे खंडन किया है और 'ऋतां क्ङितीर्' ४/४/११६ के 'ऋतां' निर्देश में और उसके कार्य में 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय की प्रवृत्ति बतायी है। उसकी चर्चा आगे की जायेगी । श्रीहेमहंसगणि ने 'मनोरौ च वा '२/४/६१ सूत्र में इस न्याय की अनित्यता का फल बताया है और श्रीलावण्यसूरिजी ने उसका खंडन किया है किन्तु वह उचित प्रतीत नहीं होता है । उन्होंने किया हुआ खंडन इस प्रकार है : श्रौतविधि और अनुमितविधि, दोनों में परस्पर विरोध हो तो ही 'श्रौतविधि की बलवत्ता बताने के लिए यह न्याय है । यहाँ 'मनोरौ च वा '२/४/६१ में श्रौत औकार विधान और अनुमित ङी विधान दोनों के साथ विकल्प का सम्बन्ध करने पर परस्पर विरोध नहीं आता है । अतः यहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति का अभाव है। यही परस्पर विरोधाभाव बताते हुए वे कहते हैं कि 'मनोरौ च वा' २/४/६१ सूत्र में चकार से, पूर्व सूत्र में से अनुवृत्त 'ऐ' का जैसे समुच्चय होता है, वैसे 'डी' का भी समुच्चय होता है । अत: औकार और ऐकार के साथ साथ 'की 'का भी समुच्चय है । अतः 'सन्नियोगशिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः, सहैव निवृत्तिः' न्याय से 'मनु' के 'उ' का जब 'औ' या 'ऐ' आदेश नहीं होगा तब 'ङी' भी नहीं होगा अर्थात् प्रथम 'औ' या 'ऐ' आदेश करना बाद में 'डी' प्रत्यय करना । अतः 'डी' का विकल्प करने के लिए इस न्याय के अनित्यत्व का आश्रय न करना, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं किन्तु इसके बारे में सिद्धहेमसूत्रवृत्ति, बृहद्वृत्ति और बृहन्यास देखने से मालूम पड़ता है कि 'मनोरौ च वा' २/४/६१ सूत्र में चकार से 'ऐ' का ही समुच्चय किया है किन्तु 'डी' का समुच्चय नहीं किया है। दूसरी बात 'ङी' का अधिकार 'गौरादिभ्यो मुख्यान् ङीः' २/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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