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________________ २२८ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) ४/१९ से चला आता है इसे 'ङी' की अनुवृत्ति कहनी हो तो यही 'ङी' अनुवृत्ति से आया हुआ है। संक्षेप में 'डी' अनुमित है और अनुमित किसे कहा जाता है उसकी व्याख्या श्रीहेमहंसगणि ने बतायी है और उसका स्वीकार श्रीलावण्यसूरिजी ने भी किया है। उसके अनुसार यही 'ङी' भी अनुमित ही है। उसका 'च' से समुच्चय नहीं होता है। उसी कारण से 'सन्नियोगशिष्टानां सहैवप्रवृत्तिः'न्याय की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है । इसके अतिरिक्त दूसरी एक बात उन्होंने यह कही है कि प्रथम 'उ' का 'औ' या 'ऐ' आदेश होने के बाद ही 'ङी' होगा और औ' या 'ऐ' आदेश नहीं होने पर 'ङी' भी नहीं होगा। उनकी यह बात सही नहीं है । यहाँ विकल्प का ('वा' का) 'डी' के साथ ही सम्बन्ध है किन्तु 'औ' या 'ऐ' के साथ सम्बन्ध नहीं है। अत: जब 'डी' होगा तब ही 'औ' और 'ऐ' होगा और 'ङी' नहीं होगा तब 'ऐ' और 'औ' भी नहीं होगा । यही बात सिद्धहेम बृहन्न्यास देखने से स्पष्ट हो जाती है। ___श्रीहेमहंसगणि ने 'श्रुतानुमितयोः' न्याय में ही 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय को समाविष्ट किया है किन्तु वह उचित नहीं लगता है । इस न्याय के न्यास में उन्होंने बताया है, उसी तरह 'श्रुतानुमितयोः...' न्याय में स्थित "विधि' शब्द से, उसमें आदेश स्वरूप और प्रत्यय स्वरूप (अनादेश स्वरूप) दोनों विधि का समावेश होता है, जबकि 'निर्दिश्यमानस्यैव'- न्याय केवल आदेशस्वरूपविधि के लिए ही है । अतः इस न्याय का श्रुतानुमितयोः' - न्याय में समावेश हो जाता है क्योंकि 'श्रुतानुमित-' न्याय 'निर्दिश्यमानस्यैव' - न्याय का व्यापक है और 'निर्दिश्यमानस्यैव'न्याय 'श्रुतानुमित'-न्याय का व्याप्य है। किन्तु इस बात का श्रीलावण्यसूरिजी खंडन करते हैं । वे कहते हैं कि वस्तुतः 'श्रुतानुमित' - न्याय का बोध होता ही नहीं है क्योंकि दोनों न्याय के विषय भिन्न भिन्न है । इन दोनों न्याय के विषय के बारे में वे कहते हैं कि जहाँ श्रुत और अनुमित दोनों निमित्तों व कार्य की भिन्न भिन्न उपस्थित होती हो वहाँ ही इसी 'श्रुतानुमित-' न्याय की प्रवृत्ति का संभव है, जबकि 'निर्दिश्यमानस्यैव' न्याय की प्रवृत्ति, जहाँ आदेश के स्थानी की श्रुत और अनुमित ऐसी पृथक् पृथक् उपस्थिति न होती हो वहाँ होती है । इस न्याय के उदाहरण में 'ऋतां क्ङितीर् '४/४/११६ सूत्र को बताया है। यहाँ 'ऋतां 'पद से ऋदन्त धातु और ऋकार दोनों की भिन्न भिन्न उपस्थितियाँ नहीं होती हैं किन्तु 'ऋतां' पद से ही 'ऋतां धातूनां' के रूप में धातु के विशेषण( अन्त्य अवयव )स्वरूप ऋ, ऐसा अर्थ होता है । अतः 'ऋदन्त धातु' और 'ऋ' दोनों भिन्न भिन्न उपस्थित नहीं होते हैं अतः स्पर्धा का अभाव होता है और स्पर्द्धा ही नहीं होने से बलाबल का विचार करना उचित नहीं है । अत: 'श्रुतानुमितयोः'-न्याय की प्रवृत्ति यहाँ नहीं होगी किन्तु 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय की प्रवृत्ति होगी । इस न्याय के फलस्वरूप 'यस्वरे पाद:.....२/१/१०२ में 'पाद्' शब्द तदन्त का उपस्थापक होने पर भी 'उच्चारित एव शब्दः प्रत्यायको, नानुच्चारितः' या 'निर्दिश्यमानस्यैवा'-न्याय के कारण ‘पादन्त' का 'पद्' * प्रत्ययसंनियोगार्थश्चकारोऽनुवर्तते, वा शब्दो विकल्पार्थंः, प्रथमविधेयता प्रधानेन ङीप्रत्ययेन सम्बध्यते. न त्वौकारेण, तत्संनिधानेनाप्रधानत्वादित्याह ङीष् भवति । (सिद्धहेमबृहन्नयास - सूत्र २/४/६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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