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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) 'इर्' होगा किन्तु अनुमित संपूर्ण ऋकारान्त धातु का 'इर्' आदेश नहीं होगा ऐसे आशय से ही।
यह न्याय अनित्य होने से 'मनोरौ च वा '२/४/६१ सूत्र में स्थित 'वा' शब्द का, पूर्वसूत्र से चली आती अनुवृत्ति स्वरूप - अनुमित ङी के साथ सम्बन्ध होता है किन्तु श्रुत 'औ' कार के साथ सम्बन्ध नहीं होता है । अतः सूत्र के अर्थ में 'मनु' शब्द से 'ङी' विकल्प से होता है, वैसा अर्थ होगा किन्तु 'औ' और 'ऐ' विकल्प से होता है ऐसा अर्थ नहीं हो सकता है । अत: 'मनोर्भार्या' धवयोग में, 'मनु' शब्द से 'मनोरौ च वा' २/४/६१ से विकल्प से 'डी' होगा अर्थात् जब 'डी' प्रत्यय होगा तब 'मनु' शब्द के अन्त्य 'उ' का 'औ' और 'ऐ' आदेश होगा । 'औ' आदेश होने पर 'मनावी' और 'ऐ' आदेश होने पर 'मनायी' शब्द होंगे, और जब ङी प्रत्यय नहीं होगा तब 'मनुः' । इस प्रकार स्त्रीलिङ्ग में तीनों रूप सिद्ध होगें ।
यदि 'वा' शब्द का 'औ च' के साथ सम्बन्ध किया जाय तो ङी प्रत्यय नित्य होगा और 'मनावी, मनायी' तथा 'मन्वी' रूप होते किन्तु वैसा नहीं होता है , वह इस न्याय की अनित्यता के कारण 'वा' का अनुमित 'ङी' के साथ सम्बन्ध किया गया होने से है।
'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' ऐसा न्याय भी पाया जाता है। जैसे 'यस्वरे पादः पदणिक्यघुटि' २/१/१०२ में 'पादः' शब्द की 'पादन्तस्य' व्याख्या हो सकती है, वैसा करें तो पाद् शब्द जिसके अन्त में हो वैसा नाम वह 'पाद' शब्द का विशेष्य होगा और 'पद्' आदेश अनेकवर्णयुक्त होने से 'षष्ठयान्त्यस्य' ७/४/१०६ का बाध करके 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से ‘पाद्' अन्तवाले संपूर्ण शब्द का 'पद्' आदेश होने की प्राप्ति है किन्तु यहाँ केवल ‘पाद्' शब्द का ही ‘पद्' आदेश होगा क्योंकि सूत्र में केवल ‘पाद्' शब्द का ही निर्देश किया है । उदा. द्वौ पादौ यस्य द्विपात् । यहाँ पात्पादस्याहस्त्यादेः' ७/३/१४८ से 'पाद' का 'पाद्' आदेश होगा। उससे जब तृतीया विभक्ति एकवचन का 'टा' प्रत्यय होगा तब 'यस्वरे पादः पदणिक्यघुटि' २/१/१०२ से संपूर्ण 'द्विपात्' शब्द का 'पद्' आदेश न होकर, केवल सूत्रनिर्दिष्ट पात्' शब्द का ही 'पद्' आदेश होता है। अत: 'द्विपदा' रूप होगा।
किन्तु 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय 'श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिर्बलीयान्' न्याय के एक भाग स्वरूप ही है, किन्तु भिन्न नहीं है । अतः उसी न्याय की सिद्धि भी इसी न्याय से हो जाती है। कैसे ? तो कहते हैं कि 'यस्वरे पाद: पदणिक्यघुटि' २/१/१०२ में पूर्वसूत्र से अधिकार के रूप में आता 'नाम्नः' पद विशेष्य बनता है और पादः' शब्द विशेषण बनता है। अतः 'विशेषणमन्तः'७/ ४/११३ परिभाषा से 'पादन्तस्य' अर्थ प्राप्त होता है । किन्तु यही ‘पादन्तत्व' परिभाषा द्वारा आरोपित होने से 'अनुमित' कहा जाता है। अतः पादन्तत्व सम्बन्धित 'पद्' आदेश स्वरूपविधि, अनेकवर्णयुक्त होने से 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से संपूर्ण ‘पादन्त' शब्द का 'पद्' आदेश होने की प्राप्ति है किन्तु वह निर्बल होने से नहीं होता है और सूत्र में केवल ‘पाद्' शब्द साक्षात् कहा गया होने से उसका ही 'पद्' आदेश होता है क्योंकि वह श्रौतविधि है। अतः वह, अनुमित 'पादन्त' विधि से बलवान् है
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