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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.७६) २१९ 'अस्' सार्थक इस प्रकार है :-'आप्नोति (आप)' धातु से 'आपोऽपाप्ता-' (उणादि-९६४) से 'अस' प्रत्यय होगा और धात का 'अप्सर' आदेश होगा, अतः 'अप्सरस' होगा, उसका प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'अप्सराः' रूप होगा । यहाँ सार्थक 'अस्' प्रत्यय के 'अ' का 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० से दीर्घ होगा । ___अनर्थक 'अस्' इस प्रकार है :- 'खरस्येव नासिकाऽस्य खरणा: ।' यहाँ 'खरखुरान्नासिकाया नस्' ७/३/१६० से 'नासिका' का 'नस्' आदेश होने पर 'खरणस्' होगा । 'पूर्वपदस्थाद् नाम्न्यगः' २/३/६४ से 'न' का 'ण' होता है । यहाँ 'नस्' शब्द सार्थक है किन्तु उसका एक भाग 'अस्' अनर्थक है तथापि, यहाँ 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० से 'अ' की दीर्घविधि होगी। सार्थक ‘मन्' इस प्रकार है :- ‘स्यति' (सो) धातु से 'स्यतेरीच्च वा' ( उणादि-९१५ ) से उणादि का मन् प्रत्यय होने पर, 'स्यति' के 'आ' ('आत्सन्ध्यक्षरस्य' ४/२/१ से 'ओ' के स्थान पर हुए) का 'ई' होगा और सीमन्' शब्द होगा। उसका प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सीमा' रूप होगा। यहाँ स्त्रीलिङ्ग में 'मनः' २/४/१४ से 'डी' का निषेध, सार्थक 'मन' होने से हआ है। अनर्थक 'मन्' इस प्रकार है :- 'महतो भावः महिमा, तमतिक्रान्ता स्त्री 'अतिमहिमा स्त्री ।' यहाँ 'महत्' शब्द से 'पृथ्वादेरिमन् वा' ७/१/५८ से 'इमन्' प्रत्यय होने पर महिमन्' शब्द होगा। उसका 'अति' के साथ 'अतिरतिक्रमे च' ३/१/४५ से समास होने पर अतिमहिमन्' शब्द होगा । उससे स्त्रीलिङ्ग में 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्जी:' २/४/१ से 'ङी' होने की प्राप्ति है। किन्तु 'मनः' २/ ४/१४ से यहाँ उसका निषेध होने पर 'अतिमहिमा स्त्री' होगा । यहाँ 'इमन्' प्रत्यय का एक भाग 'मन्' होने से, वह अनर्थक है तथापि इस न्याय के कारण 'मनः' २/४/१४ से 'डी' का निषेध होगा। उपलक्षण से 'अतु' भी सार्थक और अनर्थक दोनों प्रकार के ग्रहण होते हैं । उसमें सार्थक 'अतु' इस प्रकार है । 'इदं प्रमाणमस्य इति इयान्, किं प्रमाणमस्य इति कियान् ।' यहाँ 'इदं' और 'किम्' शब्द से 'इदंकिमोऽतुरिस्किय् चास्य' ७/१/१४८ से 'अतु' प्रत्यय होगा और 'इदं' तथा 'किम्' का अनुक्रम से 'इय्, किय' आदेश होगा । अतः 'इयत्, कियत्' शब्द होंगे । उकार की 'इत्' संज्ञा होने से उसका लोप होगा और प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'अतु' प्रत्यय के 'अ' का 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० से दीर्घ होगा। अनर्थक 'अतु' इस प्रकार है :- 'गावोऽस्य सन्ति इति गोमान्' । यहाँ 'गो' शब्द से 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' ७/२/१ से 'मतु' प्रत्यय हुआ है । उकार की इत् संज्ञा होने पर, उसका लोप होगा । यहाँ 'अतु', 'मतु' का एक भाग होने से अनर्थक है तथापि यहाँ भी 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० से ही दीर्घ होगा। इस न्याय के 'अस्' अंश का ज्ञापन 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० सूत्रगत 'अभ्वादेः' शब्द से होता है । वह इस प्रकार होता है :- "पिण्डं ग्रसते इति क्विपि पिण्डग्रः' इत्यादि प्रयोग में दीर्घ का निषेध करने के लिए 'अभ्वादेः' कहा है । 'पिण्डग्रः' में 'ग्रस्' धातु का 'अस्' अनर्थक होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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